श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ (1960-1970) | SHRESTH HINDI KAHANIYAN 1960-1970

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खगेन्द्र ठाकुर -KHAGENDRA THAKUR

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फैन्स के इधर और उधर 15 बहाने घर के अन्दर बुला लिया गया। फिर तो उस दृश्य ने हमारे घर में एक खलबली-सी मचा दी। कैसी निर्लज्जता है! धीरे-धीरे हमारे घर के लोग पड़ोसी को काफी खतरनाक-सा समझने लगे हैं। दिन तो बीतते ही हैं। अब हमारे यहाँ ज़बरन पड़ोसी के प्रति रुचि लेकर अरुचि उगली जाने लगी, जबकि हमारे लिए उनका होना बिलकुल न होने के बराबर है। धीरे-धीरे हमारे घर में पड़ोसी को दुनिया की तमाम बुराइयों का 'रिफरेन्स' बना लिया गया है। हम लोगों की आँखें हजारों बार फेन्स के पास जाती हैं। जरूरी-गैरजरूरी रोजमर्रा के सभी कामों के बीच यह भी एक 'रुटीन! बन गया है।बहुत-सी दूसरी चिन्ताओं के साथ मन में एक नई उद्विग्नता समाने लगी है। मैं खुद भी अपना बहुत-सा समय जाया करता हूँ, लेकिन उधर से कोई नज़र कभी इधर नहीं आती। पास कहीं “आउटर” न पाकर खड़ा डीजल एंजिन चीख रहा है। उसकी आवाज का नयापन चौंकाने वाला है। हम सब अभी थोड़ी देर तक डीजल एंजिन के बारे में ही बातें करेंगे। आज वे पड़ोसी दोपहर से घर में नहीं हैं। उनके यहाँ दो-तीन मेहमान सरीखे लोग आकर ठहरे हैं। कोई हबड़-धवड़ नहीं है। रोज़ की-सी ही निश्चिन्तता। मैं उठकर अन्दर गया। भाभी बाल सुखा रही हैं। फिर पता नहीं क्यों उन्होंने पड़ोसी लड़की से मेरा सम्बन्ध जोड़कर एक गुपचुप ठिठोली की। मैं मन में हँसता बाहर आ गया। तभी वह लड़की और उसकी माँ भी पैक किया हुआ सामान लिये शायद बाज़ार से लौटी हैं। पिता पीछे रह गया होगा। शाम और दूसरी सुबह भी उनके यहाँ लोग आते-जाते रहे। पर उन्हें ज्यादा नहीं कहा जा सकता। उनके घर एक साधारण पर्व-सरीखा वातावरण उभर आया था-फीका-फीका। लेकिन यह हम सबको चकित करनेवाला समाचार लगा, जब दूधवाले ने बताया कि उस लड़की का ब्याह पिछली रात को ही हुआ है। यहीं 16 अरष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) परेड का कोई बाबू है। आर्य समाज में शादी हुई है। भाभी ने मेरी ओर मज़ाकिया खेद से देखा और मुझे हँसी आ गई। बड़ी खुलकर हँसी आई। यह सोचकर कि हम सब लोग कितने हवाई हैं। उनके घर दो-चार लोग बीच-बीच में आ रहे हैं। वे लोग घर के अंदर जाते हैं और थोड़ी देर बाद बाहर निकलकर चले जाते हैं। ज्यादातर गम्भीर और अनुशासनप्रिय लोग हैं। कभी-कभी कुछ बच्चे इकटूठे होकर किलकारते और दौड़ लेते हैं। और कोई धूम नहीं है। सब-कुछ आसानी, सुविधा से होता हुआ जैसा। पता नहीं क्या और किस तरह होता हुआ? हमारे घर में यह बड़ी बेचैनी का दिन है। घण्टों बाद वह लड़की बाहर आई। शायद पहली बार उसने साड़ी पहनी थी। साड़ी सम्भालते और हाथ में नारियल लिये हुए बरामदे में चली। वह चैतन्य है, लेकिन उसके मस्त डग साड़ी में लिपटकर बहुत संक्षिप्त हो गए हैं। वह अपनी दृष्टि में अगले कदम के दृश्य को भरकर चलती रही। उसने न कोई आड़ ली और न पति से सटकर चलने के बावजूद उसमें परम्परागत नववधू का-सा संकुचित बॉकपन और लाज ही उत्पन्न हुई। उसके पति की सूरत मूझे अपने किसी दोस्त-सी लग रही है। कोई भी रो-पीट नहीं रहा है। लड़की की माँ उसके दोनों गालों को कई बार गहराई से चूम चुकी है। पिता उसके सर पर हाथ फेर रहे हैं। अब लड़की की आँखों में हल्के पानी की चमक और नए जीवन का उत्साह छिप नहीं पा रहा है। फेन्स के एक कोने से दूसरी तरफ गिलहरियाँ दौड़ रही हैं अम्माँ मुझसे लड़की के न रोने पर आश्चर्य प्रकट कर रही हैं। उनके अनुसार वह पढ़-लिख जाने के कारण एक कठोर लड़की है, जिसे अपने माँ-बाप से सच्ची मोह-ममता नहीं है। “आजकल सभी ऐसे होते हैं! पेट काटकर जिन्हें पालो-पोसो उन्हीं की आँखों में से बूँद आँसू नहीं।” मेरे कानों को ऐसा कुछ सुनने की रुचि नहीं है। मैं यह देख रहा हूँ कि अम्माँ को धूप अच्छी लग रही है। धूप का टुकड़ा जिधर खिसकता है, उसी तरफ




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