पेशावर एक्सप्रेस | PESHAWAR EXPRSSKRISHNA

PESHAWAR EXPRSSKRISHNA  by कृष्ण चंदर - Krishna Chandarपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/17/2016 दे रही थी और हजूम की पुर शोर ताव्ठिओं और कहकहों की आवाजें भी सुणाई दे रही थी और हजूम की पुर शोर ताव्ठीओं और कहकहों की आवाज़ें भी सुणाई दे रही थीं। चंद मिंटों मैं हजूम सटेशन पर आ गिआ। आगे आगे दिहाती नाचते गाते आ रहे थे और उन के पिछे नंगी औरतों का हजूम, मादर ज़ाद नंगी औरतें , बुड़ही, नौजवान, बचीआं, दादीआं और पोतीआं, माएं और बहिनें और बेटीआं, कंवारीआं और हामला औरतें , नाचते गाते होए मरदों के नरगे मैं थीं। औरतें हिंदू और सिख थीं और मरद मुसलमान थे और दोनों ने मित्र कर अजीब बैसाखी मनाई थी, औरतों के बाल खुले होए थे। उन के जिसमों पर ज़ख़मों के निशान थे और वोह इस तहाँ सिधी तन कर चल रही थीं जैसे हज़ारों कपड़ों मैं उन के जिसम छुपे होण, जैसे उन की रूहों पर सकून आमेज़ मौत के दबीज़ साए छा गए होण। उन की निगाहों का जलाल दरद पिदी को भी शरमाता था और होंट दांतों के अंदर यूं भींचे होए थे गोइआ किसी महेब लावे का मूंह बंद कीए होए हैं। शाइद अभी ये लावा फुट पड़ेगा और आपणी आतिश फ़शानी से दुनीआ को जहंनम राज़ बणा देगा। मजमा से आवाज़ें आई। पाकिसतान ज़िंदा बाद इसलाम ज़िंदाबाद। क़ाइदे आज़म मुहंमद अली जिनाह ज़िंदाबाद |नाचते थिरकते होए कदम परे हट गए और अब ये अजीबो गरीब हजूम डबों के ऐन साम्हणे था। डबों मैं बैठी होई औरतों ने घूंघट चाडह लीए और डबे की खिड़कीआं यके बाद बंद दीगरे होणे लगी। बलोची सिपाहीओं ने किहा। खिड़कीआं मत बंद करो, हवा रुकती है, खिड़कीआं बंद होती गई | बलोची सिपाहीओं ने बंदूकें ताण लीं। ठाएं,ठाएं फिर भी खिड़कीआं बंद होती गई और फिर डबे मैं इक खिड़की भी ना खुली रही। हां कुछ पनाहगज़ीन ज़रूर मर गए। नंगी औरतें पनाह गज़ीनों के साथ बिठा दी गई।और मैं इसलाम ज़िंदाबाद और क़ाइदे आज़म मुहंमद अली जिनाह ज़िंदाबाद के नाअरों के दरमिआन रुख़सत होई। गाड़ी में बैठा हुआ इक बचा लुड्हकता लुड़हकता इक बुड़ही दादी के पास चला गिआ और उस से पूछणे लगा मां तुम नहा के आई हो? दादी ने आपणे आंसूउं को रोकते होए किहा। हां नन्हे, आज मुझे मेरे वतन के बेटों ने भाई ने नहिलाइआ है। तुमहारे कपड़े कहां है अंमां? उन पर मेरे सुहाग के ख़ून के छींटे थे बेटा। वोह लोग इनहें धोणे के लीए लैगे हैं। दो नंगी लड़कीओं ने गाड़ी से छलांग लगा दी और मैं चीखती चलाती आगे भागी। और लाहौर पहुंच कर दम लिआ। मुझे इक नंबर पलेटफ़ारम पर खड़हा कीआ गिआ। नंबर 2 पलेटफ़ारम पर दूसरी गाड़ी खड़ी थी। ये अंम्रितसर से आई थी और इस में मुसलमान पनाह गरज़ीं बंद थे। थोड़ी देर के बाद मुसलिम ख़िदमतगार मेरे डबों की तलाशी लैणे लगे। और ज़ेवर और नकदी और दूसरा कीमती सामान महाजरीन से लै लिआ गिआ। इस के बाद चार सौ आदमी डबों से निकाल कर सटेशन पर खड़े कीए थे। ये मज्हब के बकरे थे किउंकि अभी अभी नंबर 2 पल्ेटफ़ारम पर जो मुसलिम महाजरीन की गाड़ी आकर रुकी थी उस में चार सौ मुसलमान मुसाफ़र कम थे और पचास मुसल्रिम औरतें अगवा कर ली गई थीं इस लीए यहां पर भी पचास औरतें चुण चुण कर निकाल ली गई और चार सौ हिंदुसतान मसाफिरों को तहि तेग कीआ गिआ ता कि हिंदुसतान और पाकिसतान में आबादी का तवाज़न बरकरार रहे। मुसलिम ख़िदमत गारों ने इक दाइरा बणा रखा था और छूरे हाथ में थे और दाइरे में बारी बारी इक महाजरान के छूरे की ज़द में आता था और बड़ी चाबक दसती और मशाकी से हलाक कर दिआ जाता था। चंद मिंटों में चार सौ आदमी ख़तम कर दीए गए और फिर मैं आगे चली। अब मुझे आपणे जिसम के ज़रे ज़रे से घिण आने लगी। इस कदर पलीद और मताफ़न महिसूस कर रही थी। जैसे मुझे शैतान ने सीधा जहंनम से धका दे कर पंजाब में भेज दिआ हो। अटारी पहुंच कर फ़ज़ा बदल सी गई। मुगलपुरा ही से बल्ोची सिपाही बदले गए थे और उन की जग्हा डोगरों और सिख सिपाहीओं ने लै ली थी। लेकिन अटारी पहुंच कर तो मुसलमानों की इतनी लाशें हिंदू महाजर ने देखीं कि उन के दिल्न फ़ुरत मुसरत से बाग बाग हो गए। आज़ाद हिंदुसतान की सरहद आ गई थी वरना इतना हुसीन मंज़र किस तहाँ देखणे को मित्रता और जब मैं अंम्रितसर सटेशन पर पहुंची तो सिखों के 47




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