युगांत | YUGANT

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इरावती कर्वे - Irawati Karve

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व युगान्त सम्मान देने का । सब बड़े-बड़े राजाओं को निमंत्रित किया गया था। अतिथियों को अध्य देकर उनका सत्कार करना था । भीष्म की सलाह से पाण्डवों ने सबसे पहले कृष्ण को अध्ये देने का निश्चय किया था । तदनुसार युधिष्ठिर अध्य देने ही वाला था कि शिशुपाल ने आपत्ति उठाई । वह बोला, “और कोई नहीं, तो तुम्हारे कुल में सबसे वृद्ध भीष्म पितामह हैं, उन्हींको प्रथम अध्यें देना उचित है । यह तके ऐसा था कि कृष्ण भी उसके विरुद्ध कुछ नहीं कह सकते थे और वह कुछ बोले भी नहीं । किन्तु स्वत: भीष्म ने उठकर कहा कि क्वृष्ण ही सब दृष्टि से योग्य हैं। इस- पर शिशपाल ने चिढ़कर उत्तर दिया---“भीष्म, तुम्हारा सारा जीवन ही क्षत्रियकुल को कंलक लगानेवाला है । अम्बा ने शाल्व का वरण किया था । सारी दुनिया इस बात को जानती थी; फिर भी तुम उसका हरण कर लाये । विचित्रवीर्य धामिक और राजधि था, इसलिए उसने उससे विवाह नहीं किया । वह तुम्हारा आश्रय पाने के लिए आई, तो तुमने उसे दुल्कार दिया । तुम्हारे भाइयों के मरने पर उनकी रानियां तुम्हारी थीं, परन्तु एक ब्राह्मण के द्वारा चुपके-से (मिषतः ) उनसे संतान उत्पन्न कराई। तुम ब्रह्मचारी नहीं षण्ढ हो । अब अध्ये देकर तुम्हारा सम्मान करने का समय आया, तो तुम कृष्ण का गरुणगान करने बैठ गये * $ युधिष्ठिर और दुर्योधन की पीढ़ी में घर के पुरुषों के लिए स्त्रियां -- पत्नियां छाने का भीष्म का काम रुक गया, इसलिए बाद में किसी महिला को यह दुर्देशा सहन नहीं करनी पड़ी । फिर भी जिस राजसभा में सब बड़े-बूढ़ों के बैठे हुए एक महिला की जो लाज गई, उसे रोकने का प्रयास किसीने नहीं किया। द्रौपदी को खींचकर राजसभा में लाया गया । यह हद हो गई । तब विदुर अलबत्ते बीच में बोला । पर विदुर घ॒तराष्ट्र का छोटा भाई था, फिर दासी-पुत्र था । उसके बजाय भीष्म अपने अधिकार और प्रभावी शब्दों से इस लज्जास्पद प्रकरण को बन्द कर सकता था, परन्तु इसके विपरीत वह धर्म-अधर्म की उधेड़-बुन करता बेंठा रहा । परिवार में कहिये या राज्य में, जो सबसे दुबंल होता है, जो अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता, उसके साथ सोजन्य का व्यवहार अन्तिम प्रयत्न है करने में ही बड़प्पन रहता है। ईश्वर अनाथों का नाथ है। इसीलिए उसकी महिमा है। यही आशय संत तुकाराम ने अपने एक अभंग में व्यक्त किया है--- “दया करी जे पुत्रांसी । तेंचि दासा आणि दासी 1 तोचि साधु ओकखावा, देव तेथेचि जाणावा ।* ' अर्थात्‌--अपने पुत्र के साथ जैसा दया-माया का व्यवहार करता है, वैसा ही जो दास-दासियों से करता है, वही साधु है। वहीं ईश्वर का निवास है । अपने लड़के के साथ कोई भी सद्व्यवहार ही करेगा। इसमें कोन तारीफ की बात ! परन्तु अपने घर के नौकर-चाकरों 'के हित की ओर जो ध्यान देता है, उसीके मन में देव-भाव समझना चाहिए । ऐसे ही घर में भगवान का निवास होता है। रूगभग ऐसे ही वचन मनु ने भी कहे हैं । 'मनुस्मृति” महाभारत के बाद लिखि गई है। परन्तु आचार के---सदाचार के नियम दोनों समयों में एक-से ही थे | पित्‌-प्रधान कुट्॒म्ब में पुरुषों की प्रधानता रहती थी । स्त्रियों को, विशेषतः स्वसुर-ग्रह-वासिनियों को, कोई हक नहीं थे । ऐसों के लिए ही मनु ने छाती ठोककर कहा है “जिस कुल में बधुओं (स्वसुरग्रह-वासिनियों ) के आंसू पड़ते हैं, जहां उनकी आत्मा तिलूमिलाती है, उस कुल का नाश हो जाता है । इसके विपरीत जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं ।” दिव तेथेचि जाणावा 1' कुरुकुल में स्त्रियों की भयंकर दुर्देशा हुई, उनके शरीर और मन दोनों कुचल डाले गये । अतः वह कुछ नाश के योग्य ही हो गया था। और दुर्देव यह कि ये सब पाप भीष्म के ही हाथ से हुए थे । एक प्रश्न पेदा होता है। भीष्म ने यह सबकुछ अपने लिए नहीं किया । जिस दिन उसने राज्य और स्त्री-संग का त्याग किया उसी दिन से उसका अपने लिए कोई कतंव्य शेष नहीं रह गया था। उसने जो-कुछ किया वह दूसरों के छलिए। उनसब कार्यों के लिए क्या उसे उत्तरदायी




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