प्रावासी संसार - जनवरी -मार्च 2014 | PRAWASI SANSAR - JAN-MARCH 2014

PRAWASI SANSAR - JAN-MARCH 2014 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhराकेश पाण्डेय -Rakesh Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लंदन से हिंदी प्रसारण का माहात्म्य + कैलाश बुधवार, हैरो, इंग्लैण्ड बीसवीं सदी के जिस चमत्कार ने बेतार के तार से दुनियां के दूर-दूर कोनों को जोड़ दिया, वह है रेडियो प्रसारण। चाहे कोई बियाबान में हो, निर्धन या निरक्षर हो, बटन घुमाते ही धरती के किसी भी छोर से अपना नाता जोड़ सकता है। जो जादू अपनी भाषा में तत्काल अपनों का हाल ला सके, उसे सुनने को किसके कान उत्सुअक नहीं होंगे। चाहे बंगला देश के युद्ध का समाचार हो या भोपाल के गैसकांड की त्रासदी, खबर की सच्चाई जानने के लिये स्वदेश में जिस रेडियो की ओर सबके कान लगे रहते थे, वह था, बी. बी. सी. का हिंदी प्रसारण। कहीं की भी जब भी कोई नई खबर कौंधती थी तो हर किसी की पहली कोशिश यही होती थी कि यह पता चले कि बी. बी. सी. पर इस बारे में क्‍या कुछ सुनने को मिला। जहां इतिहास के पन्ने युद्धों की मारकाट, राजवंशों की कलह और जातियों की खूरेजी से रंगे पड़े हैं, वहीं कहीं कहीं ऐसी तारीखें भी दिख जाती हैं जिनकी महत्ता पर उस वक्त किसी का ध्यान नहीं जा पाता पर बाद में जिनकी पहुंच देर तक यादगार बन जाती है। सन्‌ 1940 की 11 मई को हुई एक साधारण सी शुरुआत थी, एक ऐसा ही संयोग था जिस घड़ी लंदन से हिंदुस्तानी में रेडियो प्रसारण शुरू हुआ। भारत में अभी ब्रिटिश राज खत्म नहीं हुआ था, दुनियां दूसरे विश्व युद्ध की लपटों में घिरी हुई थी, लाखों भारतीय सैनिक अपनी भूमि से दूर नाजी सेनाओं से जूझ रहे थे। ऐसे में स्वदेश में अपनों से उनका संपर्क जोड़ने के लिये और उन्हें अपनी भाषा में खबरों की जानकारी से अवगत कराने के लिये बी. बी. सी. ने दस मिनट के हिंदुस्तानी में प्रसारण को शुरुआत की। बी. बी. सी. विश्व सेवा का यही प्रसारण कुछ दशकों में एक से बढ़ते-बढ़ते चार सभाओं में हर रोज होने लगा और 1980 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार बी. बी. सी. के हिंदी श्रोताओं की नियमित संख्या साढ़े तीन करोड़ से ऊपर पहुंच चुकी थी। हजारों मील दूर से आते प्रसारण पर हिंदी के श्रोताओं की निष्ठा का एकमात्र रहस्य ये था कि उन्हें घर बेठे अपनी भाषा में दुनियाभर का हाल मिलता रहता था, जिस पर सभी को भरोसा रहता था कि जिसमें लाग-लपेट की गुंजाइश न के बराबर थी। वह क्या तिलस्म था जिससे देश देश के अलग-अलग इतने श्रोता अपनी भाषा में बी. बी. सी. के प्रसारण की प्रतीक्षा में रहते थे। हिंदी में हो या और किसी भाषा में, बी. बी. सी. की विश्व सेवा की लोकप्रियता का एक ही रहस्य था कि सच्चाई छिप नहीं सकती , चाहे कोई यत्न कर लिया जाये। फिर कौन ऐसा होगा जिसे सही : 16 : जनवरी-मार्च, 2014 जानकारी की तलाश न हो। सही जानकारी पाने की उत्सुकता हर मनुष्य में, वह कहीं का हो, जन्मजात है। एक शब्द में बी.बी.सी. की विश्वसनीयता का आधार यही सिद्धान्त था कि बिना लाग-लपेट के सही सही जानकारी जहां तक संभव हो, तत्काल प्रसारित की जाये। सच्चाई को तोड़ना-मरोडना या छिपाना या दबाना कोरी भ्रान्ति है, सच्चाई कभी न कभी बाहर आकर रहती हे। इस मंच पर काम करनेवालों को भरोसा था कि किसी निहित स्वार्थ के हस्तक्षेप के आगे किसी को अपनी गर्दन नहीं झुकानी। बी. बी.सी. विश्व सेवा की एक ही नीति थी कि उसकी कोई नीति नहीं थी। हर प्रसंग के बारे में चेष्टा ऐसी हो कि हर पक्ष का दृष्टिकोण सामने आ सके ताकि श्रोता स्वयं हर तर्क को नाप-तीलकर अपनी राय बनाये। इस सिद्धान्त के चलते और बी.बी.सी. के सारे संसाधनों तक अपनी पहुंच पर हिंदी के इस छोटे से एकांश ने लाखों-करोडों का विश्वास जीत लिया था। इसे सुनने वाले केवल विद्वान वर्ग के लोग ही नहीं थे, दूर दराज गांवों में रहने वाले ऐसे निरक्षर जिनके लिये काला अक्षर भैंस बराबर था, वो भी दुनिया भर से मिली जानकारी पर वैसा ही दावा कर सकते थे जो विश्वविद्यालय के किसी स्नातक को नसीब होती। हिन्दी का यह एक संपूर्ण रेडियो स्टेशन था जिसमें समाचारों के साथ साथ उनकी समीक्षा, व्यापार का आर्थिक उतार-चढ़ाव, विज्ञान की उपलब्धियां, खेलकूद-संगीत, मनोरंजन की सारी सामग्री घर बैठे हर रोज मिलती थी। यह स्वाभाविक है कि चाहे राजनेता हो, विचारक हो या जन साधारण का मामूली मजदूर, अपने चारों ओर क्या हो रहा है, यह जानकारी पक्की करना जरूरी समझता है, वह जानकारी जो दुनिया के हर महाद्वीप से खबरों में या विवेचना में एकत्र होती थी-हिंदी श्रोताओं को घर बैठे सुबह-शाम मिलती रहती थी अपनी भाषा में, अपने प्रसारकों के स्वर में। बुश-हाउस की पांचवीं मंजिल पर यह एकांश एक कक्ष में था, जहां हिंदी के सारे कार्यक्रम तेयार होते थे। स्वदेश से आनेवाले अतिथियों में कोई नेता, कोई लेखक , कोई संगीतज्ञ, कोई कलाकार ऐसा नहीं हो सकता था जिससे वहां ये वार्ता न हुई हो। हिंदी के प्रसारक अपनी-अपनी विधा में पारंगत थे, जिस क्षेत्र में भी उन्होंने महारत हासिल की हो वहां की जिम्मेदारी में शामिल होने के साथ, हर कार्यक्रम के लिये उनका सक्षम होना अनिवार्य था। हर प्रसारक को यह आभास था कि किसी विचारक को, किसी लेखक को, किसी नेता को, किसी अभिनेता को वह सुलभ नहीं है, जो उन्हें है। किसी जा हा स्वंस्तार




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