दीर्घतमा | DEERGHATAMA

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सूर्यकान्त बाली - SURYAKANT BALI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दीर्घतमा मामतेय हूँ। “अर्थात्‌ दीर्घटमा ओचथ्य ?” “हाँ, आर्य अध्यक्ष, कह सकते हैं। मुझे इस पर आपत्ति भला क्‍यों होगी ? पर आर्य सभापते, मेरे जन्म से पूर्व ही मेरे पिता का देहांत हो गया और उनके कनिष्ठ भ्राता आर्य बृहस्पति ने मेरी माँ को फूसलाकर उनसे विवाह कर लिया। मेरी तो उन्होंने उपेक्षा की ही, मेरी माँ का भी उन्होंने भरपूर तिरस्कार आजीवन किया। अपने पति के हाथों सदा तिरस्कृत और अंततः मर जानेवाली वत्सलनिधि माँ ममता के नाम पर में स्वयं को दीर्घतमा मामतेय ही कहना चाहता हूँ।” विशालकक्ष में चारों ओर 'साधु, साधु' का हर्षनाद हो रहा था तो बहस्पति का चेहरा क्रोध में तमतमा रहा था। बोले, “आर्य अध्यक्ष, मुझे भी कुछ कहने की अनुमति मिले।” “नहीं”, अध्यक्ष ने दो टूक शैली में निर्णय दिया, “दीर्घतमा से परिचय देने को कहा गया था ओर उन्होंने अपना परिचय देने के लिए जितना आवश्यक था उतना भर कहा है। यह विवाद उठाने का अवसर नहीं है। हाँ, तो वत्स दीर्घतमा, अपना मंत्र गाओ।” प्रद्देती को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। जब से दीर्घतमा का जन्म हुआ था तब से वह उनके साथ थी, पर जान ही नहीं पाई थी कि विराट मस्तिष्कवाले इस युवा के हृदय में मंत्रसष्टि कब हुई ? दीर्घतमा के दार्शनिक व्यक्तित्व से वह भली भांति परिचित थी और इसलिए अब वह सुनने को उत्सुक हो गई कि देखें, उन्होंने केसा मंत्र रचा हे। अध्यक्ष ओर सभा को प्रणाम कर दीर्घतमा बोले, “मैंने मंत्र तो एकाधिक रचे हैं, पर इस ज्ञानसत्र में में केवल एक ही मंत्र परीक्षा के लिए गा रहा हूँ। और दीर्घतमा गाने लगे-- “इन्द्र मित्र वरुणमग्निमाहु: अथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्‌ एक सद्‌ विप्रा: बहुधा वदन्ति इन्द्र यर्म मातरिश्वानमाहु:।” दीर्घतमा का स्वर कोई गायकोंवाला तो था नहीं। पर मंत्र गाने के लिए जितनी कुशलता चाहिए, वह उनमें थी। उसी कुशलता का सहारा लेकर उन्होंने किसी ज्ञानसत्र में पहली बार आकर अपना मंत्र गाया। भरद्वाज का मन किया कि वे खुशी के मारे नाच उठें। पर ज्ञानसत्र की गरिमा ओर मर्यादा के कारण यह संभव नहीं था। प्रद्वेषी की आँखें भर आईं। उसका मन किया कि वह खुशी के मारे आर्य दीर्घतमा से लिपट जाए। पर एक तो ज्ञानसत्र की मर्यादा थी। फिर दीर्घतमा दीर्घतमा / 15




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