तीस दिन - मालवीय जी के साथ | TEES DIN- MALVIYAJI KE SAATH

TEES DIN- MALVIYAJI KE SAATH by पुस्तक समूह - Pustak Samuhरामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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रामनरेश त्रिपाठी - Ramnaresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ तीस दिन : मालवीयजी के साथ महाराज को जब माल्म हुआ कि बहुत से मिलनेवाले रोक दिये जाते है ओर देर तक बाहर बठे रहकर वे वापस घले जाते है, तब उन्होंने दूसरी राह से, जिघर पहरा नहीं था, मिलनेवालों को बुलाना झुरू किया | गुप्तनी को पता चला तो उन्होंने उधर भी पहरे का कड़ा प्रबंध कर दिया | महाराज को जब इसका पता भी चल गया, तब वे कोठी से निकलकर, कुऊ दूरी प्र, एक पीपल के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर जाकर बैठने छगे | वहाँ तक भीड़ को पहुँचने में कोई रुकावट नहीं थी। गुप्तजी को पता चछा, मन-ही-मन उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर छी होगी। अबतक दोनो ओर पेंच ओर उसकी काय चुपचाप चलती थी। जब गुप्तनी ने मन के मुताबिक भीड का नियंत्रण नहीं होते देखा, तब एक दिन उन्होंने महाराज को कहा--में तो परास्त हो गया। भद्वाराज ने बडे प्रेम के स्वर में कह्ा-भाई ! न जाने कौन कितनी दूर से क्या दुःख लेकर आया है, उसे सुने बिना कैसे वापपत कर दूँ ! ओर यह तो मेरी हमेशा की आदत है, अब नहीं छूट सकती । एक बार गांधीजी ने कहा था---५डितजी की दया अब उनका दुश्मन बन गयी है।? गुप्तजी के पास इसका उत्तर ही क्या हो सकता था ! शाम्र को मे महाराज के साथ टइलने निकछा। विश्व-विद्यालय की सीमा के बाहर वे घूमने नहीं जाते। धूम-फिरकर छोटे तो सीधे विश्राम-णह भें जाकर वे बिछौने पर लेट गये |




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