अदीना | ADINA

ADINA by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaराहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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28 अदीना में आये थे। काम का मिलना आसान न था, इसलिये मजूरी बहुत सस्ती थी । जब सरदार एक बार इन गरीबों को अपने चंग्रुल में फंसा लेता, तो फिर किसी की ताकत नहीं थी, कि उससे हाथ छुड़ा ले । वह हल के बलों की तरह उन्हें जोतता था। सचमुच मज्र हल के बैल ही जैसे थे। सरदार के हाथ में हलवाहे की तरह ही डक: रहता था, जिसे वह कभी इधर ओर कभी उधर चलाता रहता। अंतर इतना ही हि यदि बैल को चलने की ताकत न हो, तो उसका मालिक आराम करने के लिये उसे या देर के लिये छोड देता है, लेकिन मजदूर को छट्टी कहाँ ? सरदार हर वक्‍त उस से कान लेने के लिये तैयार रहता था। काम न कर सकने वाले को वह निकाल बाहर करता,और उसकी जगह पर काम की तलाश में फिरते सैकड़ों में से किसी को भरती कर लेता । हे बेकार मज्र को भूख से मरने के सिवा और कोई चारा न रहता। अदीना भी बैक क्‍ के डर के मारे सारी ताकता लगा कर अपना काम करता, बिना दम मारे बोझे को अप ड उठाता, और उसे खाली करता । अदीना को बस एक यही इच्छा थी, कि चाहे 8 भी मुश्किल काम क्यों न करना पड़े, जो मजदूरी मिले, उसमें से बचा कर अपने वतन लौटने तथा अपनी प्यारी (गुलबीबी ) को ब्याहने के लिये कुछ जमा कर सके । अदीना की मजदूरी बहुत कम थी । यद्यपि सयाने लोगों से उसके की हे कोई अंतर नहीं था,तथापि मजरी देने में उसे लड़कों में शुमार किया जाता था । प्रति-दिन कल करीब 30 कोपक (पैसा) मिलता था। 6 कोपक में वह दो काली रोटियाँ लेकर, उनमें. दिन और रात का भोजन करता । बाकी 24 कोपक वह हर रोज जमा करता जाता ! इस तरह के खाने के ऊपर उतना भारी काम करना बहुत मुश्किल था। लेकिन बेच ; क्या करता ? अगर वह अपने भौजन में थोड़ा-सा मांस और धी शामिल की लेता, तो रोज की मजदूरी उसी में चली जाती । अदीना की पोशाक भी कारख ने के डूसरे मज- दूरों की तरह फटी और गंदी थी। उसने बोझेवाले थैला के टुकड़ों और दूसरे लत्तों को सीकर जामा बनाया था। रहने की कोठरी भी अत्यन्त गंदी थी। वह बहुत ही नीची, अँधेरी, पानी ते भीगी-भीगी, और पायखाने से उसमें अंतर नहीं था। इसी छोटी-सी कोठरी में 15-20 आदमी सोना-बैठना करते थे। उनके पास हाथ-मुह धोने के लिये साबुन नहीं था और ह॒वा आने के लिये उस कीठरी में कोई खिड़को नहीं थी । इस त रह की जिन्दगी के साथ मेहनत और ताकत का काम शक्ति: से बाहर था। अदीना के सी . फूलों में अभी एक फूल भी नहीं खिल पाया था, लेकिन वह ऐसी मेहनत में पड़ा हुआ था । अगर ऐसा ही जीवन रहा, तो हो सकता है, कि वह साल थ्तम होते-होते मरः जाये । यह कोई अनहोनी बात नहीं थी। मजदूरों में'से कितने ही टायफायड से मर. गये, कितनों को पेट की बामारी ने पकड़ लिया था। इस प्रकार वहाँ सैकड़ों ने बुरे तौर से जानें दी थीं। लेकिन इन सारी कठिनाइयों और निराशाओं में जिन्दगी -बिताते उसे सिर्फ एक बात की इच्छा थी। उसकी क्या इच्छा थी, यह आपको मालूम: अदीना दर 29 है-- “काम करना और और कुछ पैसा बचाना, फिर अपने वतन लोटना, और अपनी प्रेमिका गुल बीबी से मिलना ।” यह ठीक है, कि वियोग का दुख सभी दुखों से ऊपर है। वह एक बड़ी बला है,ऐसी बला है, जिसने बहुत से नौजवानों को कोमल शब्या से उठाकर मिट्टी में पटक दिया । लेकित जिस वियोग के पीछे बहुत आशा होती है, वह आशिक को बहुत घेय॑ और सभी तकलीफों तथा मेहनतों को बर्दासरतत करने की शक्ति देती है । कक कई उन्नीस सो पन्द्रह में कपास की फसल खूब हुई थी। विश्वयुद्ध के कारण रूस के कपड़े के करखानों की माँग बहुत बढ़ी हुई थी । साधारण पहिनने के कपड़ों के अलावा युद्ध के काम के लिये भी उसका खर्च बहुत अधिक था। कपास का बाजार बहुत चढ़ा हुआ था। यद्यपि सरकार कीमत को रोकने की पूरी कोशिश करती थी तथापि बाजार में माल का दाम बढ़ता ही जा रहा था | साधारण बाजार के अलावा चोरबाजारी भी चल रही थी, जहाँ कीमत वेधानिक दाम से चौगुने पर पहुँच गई थी । यह हालत मास्को में थी । कपास के व्यापारियों और कारखाने वालों के लाभ का क्‍या कहना ? वह तीन-तीन शुना बढ़ा हुआ था। जितना ही लाभ बढ़ रहा था, उतना ही उनका लोभ और भूख भी बढ़ती जा रही थी । वे आदती शराबियों की तरह जितना ही पीते, उससे और अधिक शराब की माँग करते। क्षण-प्रति-क्षण लाभ का चक्कर उन्हें ऊपर की ओर बढ़ाये लिये जा रहा था। कपास के रोजगारियों के गुमाश्ते एक बाजार से दूसरे बाजार, एक गाँव से दूसरे गाव और घर-घर दौड़ लगा रहे थे, और कच्ची कपास को जमा करने में लगे हुए थे। कारखातों में इतनी कपास जमा हो गयी थी, कि उसे ओट सकता संभव नहीं रह गया था। फैक्टरियों के गोदाम और घर कच्ची कपास से भरे हुए थे । अंत में उन्हें मजबूर हो कर, कच्ची कपास को मैदान में बाहर जमा करना पड़ा। जाड़े में बर्फ पड़ने के बाद यह कपास के ढेर बर्फ से ढक गये, और वसंत में बरफ पिधलने से भागने लगे। इसी तरह वर्षा की नमी और गरमी की गरम हवा खाते, सन्‌ 1916 शुरू हुआ । मौसम गरम होने से भीगे कपास में गरमी आई, और उसके भीतर की नमी भाप बन कर, ज्वालामुखी पहाड़ से निकले धुएँ की तरह आस- मान पर छा गई। वाम के [लिये अधिक मजदूरों की आवश्यकता थी। एक ओर कपास की मिलों : के लिये मजूरों की आवश्यक्रता थी, दुसरी ओर वसंत-ऋतु आने के बाद जब कि खेत में किसानों का काम शुरू हुआ, मजूरों का मिलना मुश्किल हो गया था। कितु कुर्बान' अली सरदार को इस बात का हल करना आसान था। कुर्बान अली ने मालिकों की




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