नुक्कड़ नाटक | NUKKAD NATAK
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
41
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)26
मंगल :
विप्र
मंगल :
शंकर :
: हाँ, हाँ, मैं पागल हो गया हूँ । इन लोगों ने पागल बना दिया है ।
मंगल
शंकर :
नुवकड़ नाटक
इस बीच दुनिया बदली रे भटद्या,
इस बीच दुनिया बदली ।
पंडीजी अब बने महाराज,
शंकर बना मजर |
मंगल उससे अलगा रे भद्या,
मंगल उसे अलगा ।
पुरुष गाते-गाते भीड़ में चला जाता है। मंगल का
भारी क्रदमों से प्रवेश । उदास चेहरे से ज़्मीन को
देखता है ।
यह जमीन मेरी है, वह भइया की | पहले हम दोनों भाई मिलकर इसे
जोतते और बोते थे । अब जमीन ही नहीं, घर भी दो हैं | हम दोनों
भद्दयों का प्रेम इस गाँव वालों से देखा नहीं गया । बढ़ा-चढ़ाकर
हम लोगों को उन्होंने अलग करवा दिया | भइया रात तक रोते रहे
थे और मैं भी उदास था। (विराम)
: अब हम इनकी चाल सम गये हैं।
विप्र का प्रवेश ।
: बंटवारे के बाद भाई-भाई अलग होते ही हैं | एक को दूसरे से विशेष
मतलब नहीं रहता । एक रोयेगा तो दूसरा हंसेगा | एक के घर मातम
होगा तो दूसरे रसगुल्ले खायेंगे । (स्वगत) ये लोग एक साथ रहेंगे
तो फिर हमारा क्या होगा ?
(चीखकर) क्या बकते हो ! बँटवारे के बाद भी तुम लोगों का मन
नहीं भरा । अब क्या चाहते हो ? हम दोनों भाई लड़कर मर जायें ?
(ठहरकर ) नहीं, मैं तुम सब पाखंडियों को मारकर दम लूगा।
(दौड़कर गरदन पकड़ लेता है ।) मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोड़ गा ।
शंकर का दौड़ते हुए प्रवेश । विप्र से मंगल को
अलग करता है।
क्या कर रहे हो, मंगल ? पागल हो गये हो कया ?
मंगल जाता है। शंकर पुकारता है रोकने के लिए
पीछे जाता है, पर वह जा चुका है। लौठकर विप्र
के पास आता है।
पंडीजी, मंगल की ओर से मैं माफी माँगता हैं । उसे माफ कर दी जिये ।
(पाँव पकड़ता है ।) इधर कुछ दिनों से वह ठीक नहीं चल रहा है ।
विप्र भठकता है ।
सवा सेर गेहूं 27
विप्र : ठीक है, ठीक है ।
दोनों का प्रस्थान । पुरुष का प्रवेश ।
पुरुष : (गाता है)
शंकर पड़ा बीमार रे भदया
शंकर पड़ा बीमार |
दवा-दारू में सब-कुछ बिक गया ।
खतम हो गयी खेती ।
खतम हो गयी खेती रे भइया
खतम हो गयी खेती
जमा-थमा एक बैल रह गया
और फिर थोड़ा खेत ।
दिन-भर की मजदूरी करके
लौट रहा था शंकर एक दिन,
पंडीजी तब मिले रे भदया
पंडीजी तब मिले।
पुरुष का प्रस्थान | शंकर काम करके थका-माँदा
लौट रहा है । सामने से विप्र का प्रवेश ।
विप्र : शंकर, कल आकर अपने बीज-बेंग का हिसाब कर ले । तुम्हारे यहाँ
साढ़े पाँच मन गेहूँ कब के बाक़ी पड़े हुए हैं, और तू देने का नाम
नहीं लेता । पचाने का इरादा है क्या ?
शंकर : (चोककर ) साढ़े पाँच मन गेहू ! मैंने आपसे कब लिया, पंडीजी ?
यह गलत है। मेरे यहाँ क्रिसी का एक छदाम भी बकाया नहीं है।
विप्र : (आवेश में) इसी कूठ का फल भोग रहे हो जो खाने को नहीं
मिलता। (समीप आकर ) आज से सात साल पहले सवा सेर गेहें
उधार ले गये थे, याद है या नहीं ?
शंकर : (अबाक ) हे ईश्वर ! बदले में मैंने आपको कितनी खलिहानी दी !
आपने इतने दिनों तक कुछ नहीं कहा ? क्या इसी नीयत से चुप थे ?
(अनुनयपुर्बेक ) पंडीजी, मैंने आपको सवा सेर गेहूँ के बदले पचीसों
सवा सेर गेहूँ दे दिये, अब सवा सेर गेहूँ का साढ़े पाँच मन गेहूँ ?
विप्र : लेखा जौ-जोी बर्शीश सौ-सो। तुमने जो भी दिया उसका कोई
हिसाब नहीं । तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन गेहूँ लिखा हुआ
है, जिससे जी चाहो दिखवा लो | दे दो तो नाम छेक द, नहीं तो और
बढ़ता जायेगा ।
शंकर : गरीब को क्यों सताते हो ? मुझे तो खाने का ठिकाना नहीं है, साढ़े
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