पहले अध्यापक | PEHLA ADHYAPAK DUISHEN

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चिन्गीज एत्माटोव -CHINGEEZ AITMATOV

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“देखो, वह क्‍या कर रहा है : एक को पीठ पर उठा रखा है, दूसरे को बांहों में !” इस पर दूसरा अपने हिनहिनाते घोड़े को एड़ मारकर कहता- “मैं भी कैसा उल्लू हूं ! पहले क्यों ध्यान नहीं दिया ! यह रहा वह आदमी जिसे अपनी दूसरी बीवी बनाना चाहिए था !” और घोड़ों के सुमों से उड़ती मिष्टी और कीच के छींटों से हमें तर-बतर करते तथा ठहाका मारते हुए वे चले जाते। उस वक्‍त मेरा जी चाहता कि दौड़कर इन मोटे-मोटे फर-कोट वालों के पास जा पहुंचूं, इनके घोड़ों की लगामें पकड़ लूं और चिल्लाकर इनसे कहूं, “तुम मूर्ख हो, पाजी हो ! तुम्हारी यह हिम्मत कि हमारे भास्टर जी के बारे में यों बकवास करो।” किंतु एक साधारण बालिका की ओर भला कौन ध्यान देता ? मैं केवल ठेस के कड़वे आंसू पीकर रह जाती । पर दूइशेन इस तिरस्कार की ओर बिल्कुल ध्यान न देता, मानो उसने कुछ सुना ही न हो। वह कोई न कोई चुटकुला-मजाक सोच लेता और हम सब कुछ भूलकर, खिलखिलाकर हंसने लगते। दूइशेन को बहुत कोशिश करने पर भी नाले पर पुल बनाने के लिए लकड़ी नहीं मिल रही थी। एक बार छोटे बच्चों को नाला पार करा चुकने के बाद हम टूइशेन के साथ नाले के पास रुक गए। हमने पत्थरों और घास-मिट्टी से नाले के आर-पार रास्ता बनाने का निश्चय किया। सच बात तो यह थी कि गांव वालों के लिए इतना भर कर देंना काफी था कि वे मिलकर नाले के आर-पार दो-तीन लकड़ी के कुंदे डाल देते और इस तरह स्कूली बच्चों के लिए पुल तैयार हो जाता। परंतु उन दिनों लोग अपनी अज्ञानता के कारण शिक्षा को कोई महत्व नहीं देते थे और दूइशेन को एक अजीब-सा जीव समझते थे जो बच्चों के साथ या तो इसलिए उलझा रहता था कि उसके पास करने को कुछ नहीं था, या फिर अपने मनबहलाव के लिए। उनका रवैया यह था : अगर तुम्हें जरूरत है, तो इन्हें पढ़ाओ, वरना घर भेज दो। वे स्वयं घोड़ों पर चढ़कर जाते थे, उन्हें पुलों की क्या जरूरत थी। फिर भी हमारे लोग यह सोचे बिना नहीं रह पाते थे : किसलिए यह नौजवान, जो औरों से न तो किसी तरह बुरा था और न ही कमअक्ल, इतनी कठिनाइयों और अभाव को सहन करता हुआ, लोगों के उपहास और तिरस्कार को बर्दाश्त करता हुआ उनके बच्चों को ऐसे हठ से, मानकेत्तर दृढ़ता से पढ़ाए जा रहा था ? जब हम नाले के तल में पत्थर आदि रखकर रास्ता बनाने लगे, तो चारों ओर बर्फ पड़ चुकी थी और पानी इतना ठंडा था कि झुरझुरी आती थी। मैं इस बात की कल्पना करने में असमर्थ थी कि दूइशेन किस तरह सांस लिए बिना नंगे पांव ही बड़े-बड़े पत्थर घसीटकर नाले में डालता जाता था। मैं बड़ी मुश्किल से पानी में पांव रख पाई थी, नाले का तल जैसे जलते हुए कोयलों से ढका था। सहसा मेरी पिंडलियां ठंड से अकड़ गईं। मैं न तो चिल्ला सकती थी, न सीधी खड़ी रह सकती थी। मैं धीरे-धीरे पानी में गिरने लगी। मेरी ऐसी हालत देखते ही दूइशेन ने पत्थर को छोड़ दिया और लपककर मेरे पास पहुंचा और मुझे बांहों में भरकर बाहर ले आया। किनारे पर उसने मुझे अपने ग्रेटकोट' पर बिठा दिया। ठंड से नीले हो जानेवाले मेरे पांव सुन्‍न हो रहे थे। वह कभी मेरे * टिठरे पैरों को मलता और कभी बर्फ जैसे ठंडे मेरे हाथों को अपनी हथेलियों में लेकर अपनी सांसों से गर्माता। “नहीं, नहीं, आल्तीनाई, इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम यहीं बैठो, अपने को गर्म करो,” दूइशेन ने कहा, “मैं खुद ही इस काम से निबट लूंगा...” अंत में, जब पत्थर लगा दिए गए और रास्ता बन गया, तो बूट पहनते हुए दूइशेन ने मेरी ओर देखा-मैं बेहद ठिठुरी और सिकुड़ी-सी बैठी थी-और मुस्कुराकर बोला- “कहो, मेरी सहायिका, कुछ गर्मी आई बदन में ? कोट को अच्छी तरह लपेट लो, ऐसे !” फिर थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद बोला, “उस सरोज, आल्तीनाई, तुम्हीं स्कूल के बाहर उपले छोड़ गई थीं न?” “जी, हां,” मैंने जवाब दिया। उसके होंठों के कोनों पर एक हलकी-सी मुस्कान खिल उठी, मानो वह मन ही मन कह रहा हो, “मैंने ऐसा ही समझा था !! मुझे याद है, उस वक्‍त मेरे गाल जल रहे थे : इसका मतलब है कि मास्टर जी को पता चल गया है और वह इस घटना को भूले नहीं हैं, हालांकि यह बड़ी मामूली-सी बात थी। मैं बेहद खुश थी, सातवें आसमान पर थी। दूइशेन मेरी खुशी को समझ गया। “तुम तो मेरी आशाओं का तारा हो”, बड़े स्नेह से मेरी ओर देखते हुए उसने कहा। “पढ़ने में होशियार हो...काश कि मैं तुम्हें किसी बड़े शहर में पढ़ने के लिए भेज सकता ! तुम क्‍या से क्‍या बन जातीं ?” दूइशेन तेजी से डग भरता हुआ नदी की ओर चला गया! आज भी उसकी आकृति मेरी आंखों के सामने आ जाती है-उस पथरीली, शोर मचाती छोटी-सी नदी या नाले के किनारे खड़ा, सिर के पीछे दोनों हाथ




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