करवट | KARWAT

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अमृतलाल नागर - Amritlal Nagar

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रिश्वत चटा दी गयी और दरबार मे यह खबर पहुंचायी गयी कि ठाकुर रामजियावन सिंह के यहां तो स्थापा पड़ा है। बड़े कुवर तो दो रोज से घर ही नही आये और रामजियावन सिंह ने कहा कि मेरा लड़का क्षुब्ध हो संन्यासी होकर कही निकल गया है और बंसीधर को मैंने अपने घर से निकाल दिया हैं। रिश्वत के जाल में फेसकर सारा मामला उलझन गया और आज सबेरे वजीरेआला पर खुद आफत आ पड़ी। इन मामलो मे वसीघर यू भी बेदाग माना गया था। लड़कों की गवाही के अनुभार वह शिवरतन को बराबर समझा बुझाकर रोकता ही रहा था। ललकौनी घोड़ी पर सवार होकर बंसीघर टण्डन उर्फ तनकुन पाठटे नाले से जौहरी महल्ले और घड़ियाली टोले वाली गली से सामने ग्रुजरता हुआ मछली वाली बारा।दरी की ओर चला । नवाबी सरकार और कम्पनी की राजनीतिक दतरंज मे चूकि इधर गहरे दाव पेंच और तनाव के दिन गुजर रहे हैं इसलिए नगर मे दरअसल बांको का ही असली राज है। गोल दरवाजे के दोनों तरफ हलवाइयों, पसारियों, पटुवों, वेलबूटे के ठप्पे बनाने और बेचने वाले दुकानदारों से रुस्तम पहलवान और उनके श्ागिदें रोज का महसूल वसूलते थे । चांदी बाजार के बाके मालिक गुलाम नबी थे और बाजार इस्माइल खां के बिसाती और गोटाफरोश वांके कप्तान शमक्षेर अली और उनके शागिदों के भागे सदा धर-धर कापते हाथ जोड़े ही खड़े रहते थे । इस तरह तीन बाकों का राज था। चौक मे मैकू हलवाई के यहा से खस्ता और दालमोट लेने के लिए बंसीधर घोड़ी से उतरा और रास पकड़ हुये डोलवाले महराज की तरफ बढ़ा : “लाल महराज, पांव लागी ।” “अरे जियो मैयाजी, बाकी आज से हमे लाल महराज कहके न पुकारना “अरे कयों-क्यो ? अपने नाम से ही चिढ़ गये एकाएक ! ” “चिढ़े बिढ़ें नही मैया जी, मुला बात ये भई कि समसेर अली कपतान ने ये अडर निकाल दिया है।” “अडर। ये अडर क्या ला--महराज ?” मर “क्रपतान समसेर अली गोरी पल्टन जैसी उरदी पहनते हैं। कल सिले हुए लंगोट चोबी वाले की दुकान पर गये। एक पहलवान इनके आने के पहले ही दो लाल रंग के लंगोटो का सौदा कर चुका था । इन्हें भी लाल लगोटों की ही जरूरत थी। समसेर अली के अखाडे मे अली के साथ बजरंगबली का नाम भी पुजता है। हर मंगल को किसी से शुडधानी का भोग छाछू कुएं पर लगवाकर खुद ग्रहण करते हैं, अपने शाग्रिदों मे भी तकसीम करते है, फकीरों को भी बांटते है। जिस पहलवान ने लंगोट खरीदे थे उससे कहा कि रख दे और भाग जा। मौत का नचाया पहलवान न माना और वही का वही मारा गया। तब कपतानत का नादिरशाही हुक्म हुआ कि अब से उनके सिवा कोई लाल रंग का इस्तेमाल न कर पायेगा।” सारा इतिहास सुनाकर, लाल महराज बोले : “हमरा कहा मानो तनकुन भैया तो बाजार से न जाओ आप । लाल धोड़ी पे सायद कुछ झगड़ा फसाद हुई जाये।” “ठीक कहते है आप । फिर तो मच्छी भवन के किनारे-किनारे घूमकर पत्थरवाले पुल से जायें। बड़ा चवकर पड़ जायेगा, खेर ।” बाजार की राह न जाकर तनकुन ने मीनाशाह की दरगाह की ओर धोड़ी मोड़ दी और निमहरे शेखो की बस्ती पार करके सूरजकुण्ड के पास नाव वाले पुल से गोमती पार की। मन चिड़चिड़ा रहा था। कैसे बुरे समय मे जनम पाया है उसने, घर बाहर कही भैया ।/ करवट : 17




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