कतरा-दर-कतरा | KATRA DAR KATRA

KATRA DAR KATRA by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaसुषम बेदी -SUSHAM BEDI

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सुषम बेदी -SUSHAM BEDI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३. छमाही इंतहानों का वक्‍त आ जाता है। कक्‍्क्‌ की कोई तैयारी नहीं होती। पिताजी जोर-जबरदस्ती उसे सुबह कालेज भिजवा देते हैं। वहां जाने क्‍या होता है। ककक्‍्क्‌ कहता है कि वह हर क्लास में जाता है पर उसकी हाजिरी इतनी कम है कि उसे यूं भी परीक्षा में बैठने की इजाजत नहीं मिल सकती। पर खैर शिक्षकों से मिलमिलाकर आचरण के सुधार की मोहलत मिल जाती है। इम्तहानों के बाद मैं एक बार बुद्ध जयन्ती बाग जाती हूं, सहेलियों के साथ। कक्‍्क्‌ वहां अकेला घूम रहा होता है। लम्बा, उंचा और इकहरा जिस्म | गठा हुआ अंडाकार खुबसूरत चेहरा--खूब तीखी रेखाओं वाला। गाल का गढ़ा कुछ और गहरा गया था। हल्की -हल्की मूछे उग आयीं थीं--कुछेक बाल ठोढ़ी पर भी थे। पर बुझा सा चेहरा जेसे कहीं और ही गुमा हुआ था। मैं उसे सबसे मिलवाती हूं--वह आंखे नीची किये एक ही बार में उन सबसे हलो कह देता है। उसके कपड़े भी मुसे से हैं। मुझे सहेलियों के सामने शर्म सी लगती हैं--इसका कोई दोस्त नहीं , यूं ही अकेले घूम रहा है, और कहीं अगर वे उसके कालेज के बारे में पूछ ले तो मैं क्या कहूंगी ! कक्क्‌ हमे बाय कहकर दूसरी ओर को निकल जाता हैं। संध्या कौतूहलवश तेरा भाई करता क्‍या हैं। कालेज जाता है। कौनसे? सनातनधर्म। वह आगे कुछ नहीं पूछती। या तो मेरे कटे छोटे जवाबों की वजह से या ये सोचकर कि इसका भाई तो यं ही है। उस दिन की पिकनिक में मैं सिफ आसमान पर पड़े बादलों के धब्बों को देखती रहती हूं। उसके बाद जो दिन मुझे ध्यान में आता है वह है मार्च की मीठी-मीठी , आम की बौरों से गंधित गर्मी का। मैं बाहर लान में आम के पेड़ के नीचे बैठकर इम्तहानो की तैयारी कर रही थी। इस मौसम की मेरी सबसे पसंदीदा पढ़ने की जगह इसी आम की छाया में थी। आम खाने को तो मिलते नहीं थे, पर घनी-घनी छाया खूब मिल जाती थी। पकने के पहले ही सारे आम तोते खा जाते। या मां कुछ कच्चे ही उतरवा कर




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