रंग दर्शन | RANG DARSHAN

RANG DARSHAN by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaनेमिचंद्र जैन - Nemichandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सार्थकता और महत्व, नाटक के आवश्यक गुण हैं। आज भी संसार का श्रेष्ठ- तम नाठक-साहित्य काव्यात्मक ही है। आधुनिक युग में, शुष्क गद्यात्मकता के बाद अब नाटक के काव्यत्व की संतार-भर में फिर स स्थापना हो रही है। इस- द लिए नाटकीय संवादों के ऊपर विचार करते समय उनके काव्यात्मक गुणों की, संगीत लय और भाषा की, चमक की, उपेक्षा करना घातक है। रचना-सम्बन्धी अन्य तत्व है दृश्यात्मक परिकल्पना । पिछले समस्त विवे- चन की आधारभूत मान्यता ही यह रही है कि प्रदशेन से अलग नाटक की स्थिति ही सम्भव नहीं । इसी लिए प्रत्येक नाटक का एक दृश्य-परिवेश होता है जिसमें नाटककार अपने पात्रों को जीते और कार्य करते देखता और दिखाता. है। दृश्य-तत्व मूलतः पात्रों की पृष्ठभूमि तथा प्रत्येक कार्य-व्यापार का दृश्य रूप ही है | संवाद और कथानक एक प्रकार से नाठक का ढाँचा ही प्रस्तुत करते . हैं, उसका रक्त और मांस, उसका वास्तविक देह-रूप, उसके प्रदशे न में ही दृश्य- तत्व द्वारा प्राप्त होता है। यह दृश्य-तत्व ही नाटक का अपना बैशिष्ट्य है जो 'उसे कलात्मक अभिव्यक्ति की अन्य विधाओं से अलग करता है। द इस दृश्य-तत्व के एक प्रकार से दो पक्ष हैं । एक तो वह जिसका ऊपर उल्लेख किया गया, अर्थात्‌ पात्रों, कथातक और संवादों का दृश्य-कलेबर, अभि- तीत-प्रदर्शित रूप। इसके अतिरिक्त एक दूसरा पक्ष भी है जिसे दुश्यबंध (सैटिंग) कहते हैं । संसार के प्राचीन नाटकों में इसका अधिक महत्व नहीं था और उन दिनों दृश्य-सज्जा के लिए न तो पृष्ठभूमि में, न पात्रों द्वारा ही, विशेष उपकरणों का उपयोग होता था । पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में क्रमशः दृश्य-सज्जा द का उपयोग और महत्व बहुत बढ़ गया, यद्यपि नवीनतम प्रवृत्तियों के अनुसार अब फिर अधिकांश नाट्य-चिक्तक, नाटककार, निर्देशक और अभिनेता, इसको इतना महत्व देने के पक्ष में नहीं हैं कि बाहरी टीम-टाम और उपकरणों और शआंत्रिक चमत्कार पर अधिक बल पड़े और मूल विषयवस्तु और नाठक गोण हो जाये | फिर भी नाटक के एक सन्तुलित और प्रभावीत्यादक आवश्थक परिवेश के रूप में दृद्य-सज्जा आधुनिक नाथ्टक का महत्वपूर्ण और आत्यन्तिक अंग है । यह तो स्पष्ट है कि यहाँ नाटक के उस अत्यन्त मूलभूत स्वरूप और धर्म से सम्बन्धित उन तत्वों को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है, जिनको अलग- अलग तथा समग्रतः समझे बिना नाटक का कोई विवेचन या चिन्तन यथाये नहीं हो सकता। यह प्रयास निस्सनन्‍्देह हिन्दी की साहित्यिक-शास्त्रीय परिपाटी से | भिन्न है, और उसमें ऐसे तत्वों पर बल है जो नाटक की विधा के मूल व्यावहा- ररिक पक्ष को प्रकट करते हैं। वास्तव में नाट्य-चिस्तत को भ्रामक और सर्वथा अपर्याप्त और अवान्तर शास्त्रीयता से मुक्त करके उसे रंगमंच और उसकी तात्कालिक तथा मूलभूत आवश्यकताओं के समीप लाने, तथा देश के, विशेषकर | हिन्दी के, रंगमंच के लिए अंधिक उपयोगी बनाने की दृष्टि से ऐसा विवेचन 30 / रंगदर्दीन नितान्त आवश्यक है । जब तक हिन्दी नाटक के अध्येता नाटक को एक व्यवहा- रिक कला के रूप में, उसे अभिनय-प्रदर्शन तथा दर्श क-वगे से प्रत्यक्षत: सम्बद्ध अभिव्यक्ति 'माध्यम के रूप में, नहीं समझेंगे, तब तक हिन्दी के साहित्यकार और रंगकर्मी के बीच, नाटककार और रंगमंच के बीच, तथा साहित्य और रंगकला के बीच, मौजूद दूरी कम नहीं हो सकेगी । किसी भी सशक्त कलात्मक रंगमंच के विकास की यह सं था तात्कालिक और अनिवायं आवश्यकता है। इस प्रारम्भिक विवेचन के बाद अब सुजनात्मक काये के रूप में नाटक के विभिन्‍न पक्षों और तत्वों का अधिक सूक्ष्मता और गहराई से विश्लेषण किया जा सकता है। ! « नाटक का अध्ययन / 31




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