डॉ० धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री - Dr. Dharmendra Brahmchari Shastri
विद्वता और विद्वता जनित विनम्रता, सुहृदता और कांति से दीप्त डा धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री संत-साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान और अनुशीलक थे। उन्होंने हस्त-लिखित दुर्लभ ग्रंथों का गहन अनुशीलन किया था। संत-साहित्य के अनेक दुर्लभ ग्रंथों को प्रकाश में लाने का श्रेय भी शास्त्री जी को जाता है। उन्होंने दुर्लभ-ग्रंथों की एक सुदीर्घ विवरणिका भी तैयार की थी, जिसका दो खंडों में प्रकाशन हुआ था। उनके द्वारा संपादित यह ग्रंथ 'प्राचीन हस्त-लिखित पोथियों का विवरण', अनुशीलन-धर्मी साहित्यकारों एवं शोध के विद्यार्थियों के लिए अनुपम थाती है। बिहार के महान संत-साहित्यकार 'दरिया साहेब' और उनके साहित्य को प्रकट करने के महान कार्य के लिए वे सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। कठोर परिश्रम, अध्यवसाय और पुरुषार्थ के वे मूर्तमान आदर्श थे। कठोर तप कर उन्होंने अपने सुदर्शन और स्तुत्य व्यक्तित्व का निर्माण और विकास किया था। अपने गहन अध्यवसाय, धवल चरित्र, विमल व्यवहार, मृदुता और सरलता जैसे देवोपम गुणों के कारण वे सदा सबके प्रिय और सम्माननीय बने रहे। वे अभिमान रहित एक साधु-पुरुष थे और उनके व्यक्तित्व पर संत-साहित्य का गहरा प्रभाव था। उनका पांडित्य, उनके व्यक्तित्व की मधुरिमा, निश्छलता और प्रेम में निरंतर भासित होता था। वे प्रेम और करुणा के जीवंत विग्रह थे। उनकी कृतियाँ, 'संतकवि दरिया: एक अनुशीलन', संतमत का सरभंग-संप्रदाय', 'दरिया-ग्रंथावली', 'पुरुष-प्रकृति और रमणी' , 'गुप्त जी के काव्य में करुणधारा', 'हरिऔंध का प्रियप्रवास', 'साहित्यिक निबंधावली' , उनके स्तुत्य अनुशीलन की साक्षी हैं। वे बिहार के लोक-शिक्षा निदेशक, उपशिक्षा निदेशक, अनुग्रह नारायण समाज अध्ययन संस्थान के प्रथम संचालक, पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के मंत्री तथा उसके 'प्राचीन हस्तलिखित-ग्रंथ शोध विभाग' के अध्यक्ष, शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, भागलपुर के प्राचार्य, लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के प्राचार्य तथा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की कार्यसमिति के सदस्य भी रहे। किंतु इन सब से ऊपर वे देवोपम गुणों से युक्त एक ऋषि थे ।
शास्त्री जी का जन्म सारण (छपरा) जिले के बनियापुर थाना अंतर्गत मानवपाली नामक ग्राम में, एक निम्न माध्यम-वर्गीय स्वर्णकारकुल में, २८ सितम्बर १९०५ को हुआ था। बाल्य-काल से ही बालक धर्मेंद्र की मेधा और प्रतिभा की चर्चाएँ होने लगी थी। पिताश्री राजाराम जी बिहार सरकार में राजस्व कर्मचारी थे, अस्तु कोई अभाव नही था। किंतु किसे पता था कि एक महाघातक विपत्ति इतनी शीघ्रता से आनेवाली है। पिता का वरद-हस्त टिकाऊ सिद्ध नही हुआ और मात्र ९ वर्ष की अवस्था में उन्हें पितृ-शोक ने घेर लिया। शिक्षा की क्या, भोजन की समस्या तक उत्पन्न हो गई। परिवार में एक मात्र उपार्जक के विदा हो जाने से जीवन, संकटों और संघर्षों से घिर गया। पुत्र के भविष्य को लेकर चिंतित दुखियारी माता, निरंतर प्रभु से प्रार्थना करती रहीं। माँ की प्रार्थना का गहरा प्रभाव पड़ा और सिवान जिले के एक महात्मा समाजसेवी 'दाढ़ी वाले बाबा' (संभवतः बैद्यनाथ बाबा नाम था उनका, किंतु लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे) के कानों में उनकी प्रतिभा और उन पर छाए संकटों की ध्वनि पहुँची। बाबा जी ग़रीब मेधावी बच्चों को अपना आश्रय और संरक्षण दिया करते थे। सीवान में 'डि ए वी स्कूल' और 'डि ए वी कौलेज' के वे ही संस्थापक थे। उन्होंने बालक धर्मेंद्र को अपने पास बुला लिया। बाबा की बस एक शर्त थी। विद्यार्थी को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना होगा। इसी शुल्क पर भोजन और शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था उपलब्ध होगी, अन्यथा नही। बाबा के संरक्षण में उनके समान अनेक विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। बालक धर्मेंद्र ने बाबा को कभी निराश नही होने दिया। उनका परिश्रम और संकल्प उन्हें निरंतर कक्षाओं में अग्र-पांक्तेय और बाबा का प्रिय बनाए रखा। आगे चलकर उन्हें निरंतर राज्य सरकार की छात्र-वृति मिलती रही। जीवन एक तपोवन बन गया था।
उच्च अंकों से प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए राज्य के प्रतिष्ठित पटना महाविद्यालय में नामांकन कराया। तबतक किशोर धर्मेंद्र के पाँव में चप्पल नही लगे थे। वे लकड़ी के खड़ाऊँ पहना करते थे। कक्षारंभ के दिन जब वे पटना के इस भव्य महाविद्यालय में, 'खड़ाम-खड़ाम' की ध्वनि के साथ कक्षा में प्रवेश किए, तो कक्षा के विद्यार्थी पहले तो चौंके, फिर उन्हें देखा तो ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। तभी प्राध्यापक भी पहुँचे। उन्होंने हँसनेवाले बच्चों को फटकार लगाई तथा कहा कि "वस्त्र और पहनावा नहीं, प्रतिभा और गुण देखो!” सभी विद्यार्थी फिर लज्जित और मौन हो गए। बाद में, अपनी मेधा और मृदुलता से उन्होंने अपने सहपाठियों का हृदय जीत लिया। जो उन्हें देखकर हँसा करते थे, अब सम्मान देने लगे। सम्मानजनक अंकों से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से तीन विषयों; संस्कृत (शास्त्री, विशारद और काव्य-तीर्थ), हिन्दी और दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। कालांतर में उन्होंने 'पीएच डी' की उपाधि भी पाई। पढ़ने के साथ-साथ वे खेल-कूद में भी आगे रहा करते थे। वे एक बड़े 'तैराक' भी थे। वर्षा और बाढ़ के दिनों में भी वे महानदी 'गंगा' के विशाल गात्र को तैर कर पार कर जाते थे और वापस लौट आते थे।
उनकी कर्षक प्रतिभा और सादगी से उनके अध्यापक-प्राध्यापक ही नही पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ प्राचार्य भी प्रसन्न रहा करते थे। शिक्षा पूरी करने के पश्चात जब वे शिष्टाचार भेंट के लिए प्राचार्य महोदय से मिलने गए तो उन्होंने स्नेहवश कहा कि "तुम चाहो तो अभी मैं अनुशंसा कर देता हूँ, राज्य सरकार तुम्हें 'डिप्टी मजिस्ट्रेट' बना देगी।" अपने मन में शिक्षा के प्रति संकल्प ले चुके युवा धर्मेंद्र जो संस्कृत में 'शास्त्री' की उपाधि प्राप्त कर लेने के कारण अब 'धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री' हो चुके थे, कृपालु प्राचार्य से निवेदन किया कि, “यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे अपने ही महाविद्यालय में व्याख्याता बना दें।" प्राचार्य महोदय और भी प्रसन्न हुए और कहा कि "सच पूछो तो मैं भी यही चाहता था। तुम सर्वथा एक अध्यापक होने योग्य हो"।
इस प्रकार शास्त्री जी पटना महाविद्यालय में हिन्दी के व्याख्याता हो गए। वे संस्कृत और दर्शन की कक्षाएँ भी लिया करते थे। हिन्दी के विभागाध्यक्ष और अपने समय के महान आदर्शवादी विद्वान आचार्य रामावतार शर्मा का उन पर सदा ही अनुग्रह रहा। विद्यार्थी-काल में वे उनके पट्ट-शिष्य माने जाते थे। उनकी कृपा ऐसी थी कि वे उनके घर भी एक पुत्र के समान आया जाया करते थे। नलिन जी ( आचार्य शर्मा के यशस्वी पुत्र और महान समालोचक 'नलिन विलोचन शर्मा') से भी इन्हीं कारणों से उनकी पर्याप्त घनिष्ठता रही। शर्माजी उन्हें पुत्रवत प्रेम करते थे और अनुशासन भी। जब वे स्नातकोत्तर के छात्र थे, तभी एक बड़ी मनोरंजक घटना घटी। किसी कारण से बहुत दिनों से शास्त्री जी बाल नही कटा पाए थे। ज़ुल्फ़ें बड़ी-बड़ी हो गईं थीं। शास्त्री जी घर पर बुलाए गए। वहाँ पहले से हीं 'नाई' बुलाए जा चुके थे। आदेश हुआ कि इनका पूरा सिर घुटा दिया जाए। देखते-देखते शास्त्री जी का पूरा सिर नंगा हो गया। आचार्य जी ने कहा- “विद्यार्थी-जीवन एक तपस्या है। फ़ैशन के लिए नहीं!” शास्त्री जी सिर झुकाए खड़े थे! और नलिन जी पास खड़े मुस्कुरा रहे थे।
जिस व्यक्ति पर ऐसे आत्मीय और विद्वान गुरु का आशीर्वाद हो, जिस पर पूरा जीवन परीक्षा के रूप में खड़ा रहा हो, संकल्प का धनी वह व्यक्ति 'कुंदन' की तरह भला कैसे न चमकता! शास्त्री जी के विद्यार्थी जीवन ने, जो तपस्या का पर्याय था, उन्हें विद्या का 'हिरण्य-मुकुट' बना दिया था। अब उनके पास 'अभाव' नाम की कोई वस्तु नहीं थी। किंतु वे कभी अपने विचारों और आदर्श के सामने वैभव को आने नही दिया। पटना विश्वविद्यालय के जिस विभाग के छात्र रहे, उसके विभागाध्यक्ष हुए। इसी अवधि में उन्हें राज्य सरकार ने कुछ काल के लिए प्रदेश के विद्यालयों का निरीक्षक भी बनाया। वे सिंहभूम ज़िला और छोटानागपुर प्रमण्डल (अविभाजित बिहार) के निरीक्षक रहे। वर्ष १९५७ में उन्हें राज्य सरकार ने शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, भागलपुर का प्राचार्य बनाया। एक साल के पश्चात ही वे मुज़फ़्फ़रपुर के प्रतिष्ठित महाविद्यालय एल एस (लंगट सिंह ) कौलेज का प्राचार्य बनाए गए, जहाँ वे १९६१ तक रहे । इसी वर्ष उन्हें राज्य सरकार ने, शिक्षा विभाग में उपशिक्षा निदेशक बना दिया, जहाँ से उन्होंने निदेशक, लोक-प्रशिक्षण के महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय पद से अवकाश ग्रहण किया। इसी अवधि में वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के 'प्राचीन हस्तलिखित-ग्रंथ शोध विभाग के अध्यक्ष के रूप में अपनी महनीय सेवा दी और प्राचीन-ग्रंथों की प्रामाणिक विवरणिका तैयार करने का अति-दुर्लंघ्य कार्य संपन्न किया। अवकाश-ग्रहण करने के पश्चात डालमिया औद्योगिक घराने से, उनके शिक्षा संस्थानों के लिए 'शिक्षा-निदेशक' का पद स्वीकार करने का आग्रह भी आया, पर उसे अस्वीकार कर उन्होंने गया कौलेज, गया में विशेष अतिथि प्राध्यापक के रूप में अगले एक वर्ष की सेवा दी।
बाल्य-काल से ही विद्याध्ययन और स्वाध्याय की जो प्रवृति बनी, वह जीवन पर्यन्त बनी रही और उसी ने महान अनुशीलन के लिए उन्हें सदैव प्रेरित किया। उसी का परिणाम हम उनके द्वारा विरचित मौलिक शोध-प्रबंध 'संतकवि दरिया : एक अनुशीलन' (१९५४), 'संतमत का सरभंग-संप्रदाय' (१९५८), 'दरिया ग्रंथावली' (१९६१) आदि संग्रहणीय पुस्तकों में पाते हैं। संतकवि दरिया का अवतरण १८वीं शताब्दी में, पुराने शाहाबाद जिले के घरकंघा ग्राम में हुआ था। शास्त्री जी ने अपनी पुस्तक में संत दरिया के महान जीवन-दर्शन और साहित्य का बहुत ही सुंदर स्तवन और विवेचन किया है। इसका आधार उन महात्मा कवि के २० अत्यंत मूल्यवान ग्रंथ हैं, जिनमे १८ हिन्दी में, एक संस्कृत में ( ब्रह्म चैतन्य ) तथा एक फ़ारसी में ( दरिया नामा ) है। दरिया साहेब हिन्दी की निर्गुण-धारा की साहित्यिक परंपरा के प्रमुख कवियों में एक और महान समाज-सुधारक संत थे, जिन्हें साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नही मिल पाया था।
शास्त्री जी के संपूर्ण जीवन-चरित में एक सरसरी दृष्टि डालने भर से उनके महान अवदान से हृदय पलावित हो जाता है। वे एक महान शिक्षा-शास्त्री, लोकप्रिय प्रशासक, तपस्वी साहित्य-साधक और महान अनुशीलन-करता के रूप में हमारे मानस में प्रतिष्ठित होते हैं। हिन्दी के प्रति उनका अनुराग वन्दनीय है। वे अपने शिष्यों और अपने कुटूँबियों को भी सदा प्रेरित करते रहे। उनकी सभी चार पुत्रियाँ हिन्दी की सेविकाएँ रहीं। प्रथम सुधांशुमयी और तृतीय पुत्री सीतांशुमयी हिन्दी की शिक्षिकाएं हुईं। द्वितीय पुत्री हिमांशुमयी अल्पायु रहीं। उनकी चौथी पुत्री ललितांशुमयी हिन्दी की स्तुत्य सेविका सिद्ध हुईं। उन्होंने अनेकों पुस्तकों का प्रणयन किया और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में अनेक वर्षों तक पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में योगदान देते हुए, सृजन में लिप्त रहीं। अब तो वो भी नही रहीं! उनके तीनों पुत्र; कर्मेंद्र, नरेंद्र और मधुरेंद्र,यद्यपि कि हिन्दी के विद्यार्थी नही रहे, परंतु हिन्दी-प्रेमी हुए। अभियंता नरेंद्र जी तो बड़े उद्यमी सिद्ध हुए। पटना में 'अलंकार मोटर्स' नामक मारुति गाड़ियों का उनका एक वृहद विक्रय और मरम्मत केंद्र है।
१९ जुलाई, १९६४ को, मात्र ५९ वर्ष की आयु में, सौ वर्षों से अधिक के कार्य पूरा कर कृतात्मा शात्री जी इहलौकिक लीला का संवरण कर, 'गोलोक-धाम' के लिए विदा हो गए। अपनी सात्विक दिनचर्या के कारण सदा स्वस्थ रहने वाले शास्त्री जी 'बी-कोलाई' नामक संक्रमण से ग्रस्त हो गए थे। भ्रांतिपूर्ण उपचार के कारण रोग का शमन नही हो सका। कहते हैं उनकी वंश-परंपरा में गृह-पति अल्पायु ही रहे। सबकी मृत्यु ५५ से ६० वर्ष के भीतर ही हुई। उनके जैसे दिव्यात्मा के लिए यह देह छोड़ने की कोई आयु नही थी। किंतु परमात्मा ने उन्हें जिस कार्य के लिए जगत में भेजा था, संभवतः वह पूरा हो गया था! जगत-मंच पर उनकी भूमिका समाप्त हो गई थी। निर्देशक-नियंता ने उन्हें पर्दे के पीछे बुला लिया। किंतु अपनी अविस्मरणीय कारयित्री प्रतिभा और भूमिका के लिए 'यवनिका-पतन' के बाद भी वे लोगों के मानस में सदा सर्वदा के लिए जीवित हैं।