प्राकृत भाषाओ का व्याकरण | Prakrit Bhashao Ka Vyakaran

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Prakrit Bhashao Ka Vyakaran by आर. पिशल - R. Pishal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आर. पिशल - R. Pishal

Add Infomation About. R. Pishal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
का साथ पैदशाची से संबंधित चोदद्द विशेष सूत्र भी हैं । ये चौदह विशेष सूत्र तो पेशी मैं महाराष्ट्री से अधिक हैं और पेद्याची की स्पष्ट विशेषताएँ हैं तथा उन्हें बताने दिये गये हैं । इसी. प्रकार अन्य प्राकृत भाषाओं पर जो विशेष सूत्र दिये गये हैं उनकी दा समझिए । -डोस्वी निनि के श्रथ प्ृ० १ २ और ३ मुख्य प्राकृत के सिवा अन्य प्राकृत भाषाओं को निकाल देने और प्राकृतप्रकाश के भामह-कौवेल-संस्करण में पॉचवें और छठे परिच्छेदों को मिला देने का कारण और आधार वररुचि की टीकाएँ और विश्ेधतः वरसंतराज की प्राकृत संजीवनी है | ्‌ प्र कोबेल ने भामद्द की टीका का संपादन किया है । इसके अतिरिक्त इधर इस अंथ की चार टीकाएँ और मिली हैं जो सभी प्रकाशित कर दी गई है । वसतराज की प्राकडत रांजीबनी का पता बहुत पहले-से लग चुका है । करपूंर- मजरी के टीकाकार चसुदेव ने इसका उ्ठेस किया है । मार्कण्डेय ने अपने प्राकृतसर्वस्व मे लिखा है कि उसने इसका उपयोग किया है । कौवेल और ऑफरे ने प्राकृत के सपघ मे इसका भी अध्ययन किया है। पिगाल ने तो यहाँ तक कहा है कि प्राइत- संजीवनी कपिल के भामह की टीकाबाले सस्करण से छुछ ऐसा भ्रम पेदा होता है कि प्राकृत-संजीवनी एक मीलिक और स्वतंत्र ग्रथ है । दस टीका की अतिम पक्ति में लिखा है-- दति वसम्तराजविरचितायां याकृतसजीवनीदृत्ती निपातविधिर्‌ अप्मः परिच्छेदः समासः । रचयिता ने य्राकृत सजीवनी को इसमें दृत्ति अर्थात्‌ टीका बताया है | पिशल ने अपने ग्रन्थ ( प्राकत भाषाओं का व्याकरण ४० ) में इस लेखक का परिचय दिया है । यदि दम पिद्दाछ की विचारधारा स्वीकार करें तो प्राकृत-संजीवनी का काल चौदहवीं सदी का अत-काल और पन्द्रहवीं का आरभ-काल माना जाना वाहिए | भ्दं है 2५ यह टीका भामइ-कौवेल-संस्करण की भूछों को झुद्ध करने के लिए बहुत अच्छी और उपयुक्त है । छुछ उदाइरर्णों से ही मादम पड़ जाता है कि इससे कितना लाभ उठाया जा सकता है ? इसमें अनेक उदाइरण हैं और वे पुराने लगते हैं। बहुसंख्यक कारिकाएँ उद्धत की गई है। इनमे से कुछ स्वय भामह ने उद्धत की हैं । इनसे पता छगता है कि वररुचि की परपरा मैं बड़ी जान थी । इसकी सहायता से वररुचि के पाठ मे जो कमी है वह पूरी की जा सकती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वसंतराज ने वरसुचि के सूत्रों की पुष्टि में अपना कोई वाक्य नहीं दिया है। कहीं-कही छीन-छूट एक-दो दाब्द या वाक्य इस प्रकार के मिलते हैं वे भी बहुत साधारण ढँग के । वसंतराज ने किसी प्राऊृतव्याकरणकार के नाम




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now