आनन्द संग्रह | Aanand Sangrah
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.46 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उदारशील बनो 1 हद
_ जैसे चश्ु को झुक्ठ-पीतादिरूपों के देखने के लिये
« प्रकाश की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार परोपकार करने
के लिये स्वार्थ त्याग की ज़रूरत हे। जो लोग खुदगज़ी को
छोड़े बिना परोपकार करने से तत्पर होते हैं वे -चास्तव मैं
धर्म की मयांदा को नहीं जानतें । घ्ेमय्यादा के स्थिर
करने में वे ही पुरुष सामथ्यवास हुए जिन्हों ने स्वार्थ को
« छोड़ कर अपने आप को उदारचित्त बनाया फिसी कवि ने
उदार और अज्ुदार पुरुपी का स्वसाव एक इलोक में
चर्णन किया है*--
अय॑ निजः परोवेत्ति गणना ठघुचतसामू । उदारच-
रितानान्तु बसुचैव कुटस्यकस् ॥।
यह मेरा है और यह अन्य है ऐसा छथघु विचार स्वा्थी
पुरुषों का होता है, जो परोपकार करने की सामग्री से विपरीत
_ है। जिन के विचार अव्याहत आकाश की तरह ये रोकटोक
होते हैं सस्पूरण चछुधा उन का कुड़म्च अथीत् अपना आप
ही होता है। जिस प्रकार पुरुष अपने 'छिये या अपने अड्डी
' के लिये अष्टिचिन्तन नहीं कर' सकता प्रत्युत पुष्टि में ही
लगा रहता है, तदूचय उदारदंति दिशिष्ट प्राणिमान्र की
हिताचिन्ता में सदेव प्रयल करते रहते हैं; ऐसा व्यव्पार स्वार्थी
पुरुष की सामथ्य से चाहर हे।
अतः पुरुपो को परोपकार करने के दिये स्वाथंत्यागो
और उदार चसने का यलल करना चाहिये । स्वाथें अर्थात्
खुदगज़ी मनुष्य के उदार भावों को नप्ट कर दुष्ट थावों को
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