आनन्द संग्रह | Aanand Sangrah

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Aanand Sangrah by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उदारशील बनो 1 हद _ जैसे चश्ु को झुक्ठ-पीतादिरूपों के देखने के लिये « प्रकाश की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार परोपकार करने के लिये स्वार्थ त्याग की ज़रूरत हे। जो लोग खुदगज़ी को छोड़े बिना परोपकार करने से तत्पर होते हैं वे -चास्तव मैं धर्म की मयांदा को नहीं जानतें । घ्ेमय्यादा के स्थिर करने में वे ही पुरुष सामथ्यवास हुए जिन्हों ने स्वार्थ को « छोड़ कर अपने आप को उदारचित्त बनाया फिसी कवि ने उदार और अज्ुदार पुरुपी का स्वसाव एक इलोक में चर्णन किया है*-- अय॑ निजः परोवेत्ति गणना ठघुचतसामू । उदारच- रितानान्तु बसुचैव कुटस्यकस्‌ ॥। यह मेरा है और यह अन्य है ऐसा छथघु विचार स्वा्थी पुरुषों का होता है, जो परोपकार करने की सामग्री से विपरीत _ है। जिन के विचार अव्याहत आकाश की तरह ये रोकटोक होते हैं सस्पूरण चछुधा उन का कुड़म्च अथीत्‌ अपना आप ही होता है। जिस प्रकार पुरुष अपने 'छिये या अपने अड्डी ' के लिये अष्टिचिन्तन नहीं कर' सकता प्रत्युत पुष्टि में ही लगा रहता है, तदूचय उदारदंति दिशिष्ट प्राणिमान्र की हिताचिन्ता में सदेव प्रयल करते रहते हैं; ऐसा व्यव्पार स्वार्थी पुरुष की सामथ्य से चाहर हे। अतः पुरुपो को परोपकार करने के दिये स्वाथंत्यागो और उदार चसने का यलल करना चाहिये । स्वाथें अर्थात्‌ खुदगज़ी मनुष्य के उदार भावों को नप्ट कर दुष्ट थावों को




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