एक क्रांतिकारी की आत्म - कथा | Ek Karantikari Ki Atma - Katha

Ek Karantikari Ki Atma - Katha by वनारसीदास चतुर्वेदी - Vanaaraseedas Chaturvedee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२५ बालक क्रोपाटकिन को जीवन के दो सिन्न-भिन्न प्रकार के--परस्पर- विरोधी--अनुमव होते है। जब क्रोपाटकिन आठ वर्प के थे वह सम्राट जार के पार्पद बालक बना दिये गए थे । उस समय वह महाणव्तिशाली जार के पीछे-पीछे चलते थे भीर एक बार तो भावी साम्राजनी की गोद में सो गये थे जहा एक ओर उन्हें यह अनुभव हुआ वहा दूसरी ओर उनकी कोमल आत्मा दासत्व प्रथा के भयकर अत्याचारों को अपनी आखों देखकर झुल्स गई । एक दिन प्रिंस क्रोपाटर्किन के पिता घर के दास-दासियों से नाराज हो गये और उनका युस्सा उतरा मकार नामक नौकर पर जो रसोइये का सहायक था । प्रिंस क्रोपाटकिन के पिता ने मेज पर बैठकर एक हुक्मनामा लिखा-- मकार को थाने पर ले जाया जाय और उसके एक सो कोंडे लगवाये जाय । यह सुनकर बालक प्रिंस क्रोपाटकिन एकदम सहम गये ओर उनकी आंगों में आसू भा गये गला भर आया । वह मकार का इन्तजार करते रहे । जब दिन चढ़ने पर उन्होंने मकार को जिसका चेहरा कोड़े खाने के वाद पीला पड गया था आर विलवुल उत्तर गया था घर की एक अन्वकारमय गली में देखा तो उन्होंने उसका हाथ पडककर चूमना चाहा। मकार ने हाथ छुगते हुए कहा--रहने भी दो । मुझे छोठ दो तुम भी बडे होने पर दया बिलकुल अपने पिता की तरह न बनोगें ? बालक क्रोपाटकिन ने भरे गला से जवाब दिया नही नहीं हगिज नहीं ।




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