रामायण के कुछ आदर्श पत्र | Ramayan Ke Kuch Adarsh Patra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मर्यादा-पुरुपोत्तम श्रीराम हे गयी | भगवान्‌ राम अयोध्या लौटनेके लिये तैयार हुए । उस समय विमीषणने श्रीरामको बड़े आदर और प्रेमसे विनयपूर्वक कुछ दिंच रुकनेके लिये कददा । तत्र श्रोरामचन्द्रजीने उत्तर दिया--- न. खब्वेतन्न छु्यों ते वचन राधसेचर । ते हु मे आतर द्रपुं भरत॑ त्वरते मन ॥ मां निवर्तयितुं योड्सी चित्ररूटसुपागतः । शिरसा याचतों यस्य बचने न कृत सया ॥ ( वा० रा० ६। १२१1 १८-१९ ) 'राक्षसेश्वर ! मैं तुम्दारी बात न मानूं--ऐसा कदापिं सम्मव नहीं; परंतु मेरा मन उस भाई भरते मिंछनेके लिये छटपटा रहा है । जिसने चित्रकूटतक आकर मुझे ढौटा ले जानेक्े छिये सिर झुकाकर प्रार्थना की थी और मैंने जिसके वचनोंको खी कार नद्दीं किया था [ उस प्राणप्यारे भाई भरतसे मिलनेमें मैं अब कैसे विध्म्तर कर सकता हूँ £ ]*--इत्यादि । इसके बाद चिमानमें बैठकर श्रीराम सीता, लश्गग और सब मित्रेकि साथ अयोध्या पहुँचे । वहाँ भी भरतसे मिठते समय उन्होंने अद्भुत श्रात-प्रेम दिखलाया है । राज्य करते समय भी श्रीराम दर एक कार्यमें अरने भाइपों- का परामदी छिया करते थे । जिस किसी प्रकारसे उनको छुख पहुँचाने और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे | एक समय छवणासुरके अत्याचारोंसे घवडाये हुए रियोंने उसे मारनेके लिये भगवानसे प्रावना की । मगबान्‌ने समामें प्रइन किया कि 'लवणासुरकों कौन मारेगा ! किसके जिम्मे यदद काम रकग रा० आ० र--




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