रामायण के कुछ आदर्श पत्र | Ramayan Ke Kuch Adarsh Patra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5.12 MB
कुल पष्ठ :
166
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मर्यादा-पुरुपोत्तम श्रीराम हे
गयी | भगवान् राम अयोध्या लौटनेके लिये तैयार हुए । उस समय
विमीषणने श्रीरामको बड़े आदर और प्रेमसे विनयपूर्वक कुछ दिंच
रुकनेके लिये कददा । तत्र श्रोरामचन्द्रजीने उत्तर दिया---
न. खब्वेतन्न छु्यों ते वचन राधसेचर ।
ते हु मे आतर द्रपुं भरत॑ त्वरते मन ॥
मां निवर्तयितुं योड्सी चित्ररूटसुपागतः ।
शिरसा याचतों यस्य बचने न कृत सया ॥
( वा० रा० ६। १२१1 १८-१९ )
'राक्षसेश्वर ! मैं तुम्दारी बात न मानूं--ऐसा कदापिं सम्मव
नहीं; परंतु मेरा मन उस भाई भरते मिंछनेके लिये छटपटा रहा
है । जिसने चित्रकूटतक आकर मुझे ढौटा ले जानेक्े छिये सिर
झुकाकर प्रार्थना की थी और मैंने जिसके वचनोंको खी कार नद्दीं
किया था [ उस प्राणप्यारे भाई भरतसे मिलनेमें मैं अब कैसे विध्म्तर
कर सकता हूँ £ ]*--इत्यादि ।
इसके बाद चिमानमें बैठकर श्रीराम सीता, लश्गग और सब
मित्रेकि साथ अयोध्या पहुँचे । वहाँ भी भरतसे मिठते समय उन्होंने
अद्भुत श्रात-प्रेम दिखलाया है ।
राज्य करते समय भी श्रीराम दर एक कार्यमें अरने भाइपों-
का परामदी छिया करते थे । जिस किसी प्रकारसे उनको छुख
पहुँचाने और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे |
एक समय छवणासुरके अत्याचारोंसे घवडाये हुए रियोंने
उसे मारनेके लिये भगवानसे प्रावना की । मगबान्ने समामें प्रइन
किया कि 'लवणासुरकों कौन मारेगा ! किसके जिम्मे यदद काम रकग
रा० आ० र--
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