लोक - गीतों का विकासात्मक अध्ययन | Lok Gito Ka Vikasatmak Adhyayan

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Lok Gito Ka Vikasatmak Adhyayan by डॉ. कुलदीप - Dr. Kuldeep

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लोक-गौतों का विकासात्मक भध्ययन क भ्रु भारत में आर्य जाति के आगमन पर यहाँ के सूल निवासियों से उनका जो सर्प हुआ उसके फलस्वरूप 'वेद' और 'वेदेतर' स्थिति आयी । “लोक' को अब वेदेतर (वेद-विरोधी) माना जाने लगा । किन्तु कालान्तर मे श्लोक' अपनी सकुचित स्थिति से निकल आया और उसकी भावना वैदिक तथा. अवैदिक दोनो का स्पं करने लगी । अब तो 'लोक' परम्परा का सरक्षक, सहेजने वाला और अवुभुति को सवेदना-पुरणं सतत सवाहक माना जाने लगा । जीवन के सभी उपकरणों का समावेश उसमे हो गया है । हमारी सस्कृति 'लोक' से अलग नहीं। उसका उद्गम लोक से ही हुआ हे । गीता मे लोक-शास्त्र तथा लौकिक भाचारो की महत्ता स्वीकार की गयी है । बौद्ध धरम मे 'लोक' को प्रमुखता दी गयी है । अद्ोक के शिला-लेखो मे 'लोक' के कल्याण के भादेश है । प्राकृत और अपग्रश में प्रयुक्त 'लोकजना' भौर 'लोकप्ण्वाय” भादि दाव्द लौकिक नियमों का. महत्व प्रकट करते है। यजुर्वेद मे लोक (समाज) की एक विराट कल्पना मिलती है । वह पुरुष रूप ब्रह्म है उसके सहस्रो मुह, नेत्र, हाथ तथा पाँव है--महस्र शीर्षा पुरुष सहस्राज्ष: सहस्रपातु ।' वास्तव मे साघारण जन-समाज ही “लोक' कहलाता है । इस शब्द में व्गं-भेद रहित, विस्तृत और प्राचीन परम्पराओं की श्रेष्ठ राशि के साथ आधुनिक सम्यता- सस्कृति का कल्याणमय विकास निहित है । इस शब्द मे नागरिक और ग्रामीण दोनो ही सस्कृतियो का समन्वय है । आधुनिक साहित्य की नयी प्रवत्तियों मे 'लोक' का प्रयोग जब गीत, वार्ता, कथा, सगीत आदि के साथ होता है तो इससे अर्थ लिया जाता है उस विशेषता का जिसमे पृर्व-सचित परम्पराएँ, भावनाएं, विद्वास और आदश सुरक्षित हो । जिस लोक-साहित्य को कुछ समय तक अनगढ, गँवारू, निम्न स्तरीय भर अनुपयोगी समभ्रा जाता था वह अब नये हष्टिकोण को प्रस्तुत करने वाला माना जाने लगा है । भारत का किसान, यहाँ के गाँव, यहाँ को ग्रामीण महिलाये भारतीय लोक को वास्तविक जी वन-शक्तियाँ है । हिन्दी का “लोक” बाव्द ऐ ग्लो-सेक्सन गब्द 'फोक' जैसा ही है । फोक (0.९) बव्द की उत्पत्ति ह01.0 से हुई है । जमंन मे इसे ४01. लिखा जाता है। भग्रंजी मे इस 'फोक' का प्रयोग भपढ, असस्कृत और मूढ समाज के लिये हो होता रहा है किन्तु अब इसका प्रयोग सर्वेसाघारण भौर राष्ट्र के सभी लोगो के लिये भी होने लगा है। “फोक” बव्द हिन्दी के 'लोक' का पर्यायवाची कहा जा सकता हू । 'जन' या 'ग्राम' फोक के अर्थ मे आते हैं किन्तु वास्तव मे 'फोक' इनसे भिन्न है। 'जन' प्राचीन शब्द है जिसका भय 'मानव-समाज' होता है। इस भाधार पर फोक' गौर 'जन' एक ही अं लिये है । किन्तु प्रयोग और परम्परा के आधार पर १ क्र० १०1६० ; यजु० ३१.




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