आधुनिक हिंदी गीतिकाव्य का स्वरूप और विकास | Aadhunik Hindi Ka Swaroop Aur Vikas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
47.41 MB
कुल पष्ठ :
369
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पृष्ठभूमि हैं लोकगीतौका जन्म ओर स्वरूप-विकास लोकगीत किसी भी दिष्ट साहित्यके अमरत्व और शाश्वत स्वरूपका मूल सख्त है । जैसे कोई पौधा धरतीसे सम्बद्ध हुए बिना पूर्णतः विकसित नहीं हो सकता उसी तरह लोकगीतॉंकी परम्परासे विच्छिन्न होकर किसी भी देशका काव्य-साहित्य आगे नहीं बढ़ सकता । लोक-गीतोंका विकास कभी अवरुद्ध नहीं होता । जिस समय किसी देशाके काव्यका दिष्ट रूप अपने कछा-विकासके दीर्षबिन्दुपर स्थापित रहता है उस समय भी ग्राम-गीतोंके रूपमें छोक-गीत अनन्त कंटोंमें व्वरित्-प्रतिष्वदित होते रहते हैं | लोकगीतोंके आादिरूपका सम्बन्ध मानवकी उस अवस्थासे है जब शब्दोका ज्ञान नगण्य था | केवल आवेगमय भावात्मक अवस्थामें मानव सहज ही गुनगुना उठता था | लय-ताल-सम्बन्ध स्वर ही उसकी भावाभिव्यक्तिके प्रथम सोपान हैं । लयसंयुक्त यहं आवेग ही लोक-गीतोंका जनक है । पहले केवल लोकघुनोंका निर्माण हुआ । आगे चल्कर दाब्दों विचारों और लोकधुनोंका साथ-साथ विकास हुआ । एक कंटसे दूसरे कंठतक पहुँचते हुए लोकगीत पर्रिवर्धित होते रहते हैं । छोक-गीतोंका अर्थ तर्ककी अपेक्षा सम्बेगसे अधिक सम्बद्ध होता है । लोकगीत जन-मानसकी विभूति है । जब कभी आदि मानव सुख-दुखकी अतिरेकावस्थामें पहुँच जाता था. तब सहज ही उसका कंठ शत-झत स्वरोंमें फूट पड़ता था । कुछ लोग लोकगीतोंका जन्म रति और भयकी क्रोड़से मानते हैं । किन्तु वस्तुतः इन दो शगोंके अतिरिक्त उत्साह और श्रमसे भी लॉकगीत सम्बद्ध है। ये लोकगीत निर्वेयक्तिक होनेके कारण सहज अनुभूतिगम्य होते हैं । लोक- गीतोंमें व्यक्ति उपलक्ष्य होता है लक्ष्य होता है भावोंकी स्वच्छन्द-निर्दन्द्र अभिव्यक्ति । लोक-गीतेंमें एक ऐसी प्रभाचोत्पादकता रहस्यमयता एवं सहजता होती है जो व्याख्येय नहीं अनुभव-गम्य है | लोकगीत देशकाल्से प्रभावित एक सांस्कृतिक वैमव है । यद्यपि लोकगीतोंके निर्माणका सम्बन्ध समूहसे है तथापि उनमें किसी श्रोता-मंडलीको प्रभावित करनेका उपयोग परिलक्षित नहीं होता क्योंकि निर्माणकी अवस्थामें लोकगीतके श्रोता और निर्मातामें कोई भेद नहीं होता | प्रारम्भमें ये गीत ऐसे उदार और प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा निर्मित हुए होंगे जिनकी वैयक्तिकता जन-समाजसे एकाकार हो गयी होगी । उन्हें न तो अपने नाम और यथका मोह था और न उनकी भावनाएँ समाजसे भिन्न थीं । अतः जनकंठ द्वारा निरन्तर परिष्कृत होते-होते वे रचनाएँ जनसमाजकी हो गयीं । वत्तंमान रूपमें उपलब्ध लोकगीतों का मूलरूप कैसा था यह जानना अत्यन्त कठिन है । जन-समाजने अपनी आवश्य- कृताओं परिस्थितियों और प्रदत्तियोंके अनुरूप उनका आकार दे दिया । अतः ये गीत १ ..... 06 +0४-अए्6 उं ि6ए6# 000800प8 0 पिंड #एतींक्राट6 ... 96 66 ए006161076 2768 ६167 6601 007 60ते68ए0ए7ए8 प्र पड एए फए 80] 0067 भा ५ छ801 धरिं० 8९५00 शापठाण [888 0. 800पश्छति0ाा 0 109 प67818 --.2060 पााकध ही।6 26०16 छापा ७0 किट एए कु. 188.
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