महाबंधो | Maha Bandh

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Maha Bandh by महाधवल सिद्धान्तशास्त्र - Mahadhavala Siddhant Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्४ सहावन्घध जघस्य काठ एक समय शौर उत्कट काल दो समय कहा है । तथा इसके अनुत्कष्ट प्रदेशवन्थके तीन सडक प्राप्त होते हैं--अनादि-अनन्त जनादि-सान्त और सादि-सान्त । अनादि-अनन्त भड़ अभव्येकि होता है क्योंकि उनके द्विसीयादि गुणस्थानोंकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे वे सवदा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते रहते हैं । अनादि साम्त भड़ जो केवल क्षपकश्रेणीपर भारोइण करके मोक्ष जाते हैं उनके सम्भव है क्योंकि उनके अनादिसे अनुत्कुष्ट प्रदेशवन्ध होने पर भी दसवें गुणस्थानमें उसका अन्त देखा जाता है । और सादि सान्त शक ऐसे जीवोंकि होता है जिन्होंने उपशामश्रेणिपर आरोइण करके उत्कृष्ट प्रदेशघन्ध किया है । यहाँ इस सादि-सान्त मटका जघन्य काल एक समय है भीर उत्कष्ट काल कुछ कम अधंपुद्गल परिवतंन्र प्रमाण है । उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक समयके अम्तरसे सम्भव है इसलिए तो यहाँ अनुण्क्ष्ट प्रदेशवन्धका जघन्यकाल एक समय कहा है और उपशमश्रेणिके आरोहणका एक जीवकी अपेक्ञा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधंपुद्गरु परिवतनप्रमाण है इसलिए यहाँ अनुत्क्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम अधंपुद्गरू परिवतंन प्रमाण कहा है। यह तो ज्ञानावरणके उत्कष्ट और भअनुत्कष्ट प्रदेशवन्धके कालका विचार है। इसके जघन्य भौर अजघन्य प्रदेशवन्धके काठका विचार इसप्रकार हे--सूच्म निमोद अपरयाप्त जीव भवके प्रथम समयमें इसका जघन्य प्रदेशवन्ध करता है इसलिए इसके जघन्य प्रदेशवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है | तथा इसके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्यकाल एक समय कम क्षुर्लकमवय्रहण प्रमाण है क्यों कि उक्त जीव प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्घ करके प्यायके अन्ततक अजघन्य प्रदेशवन्घ करता रहा और मरकर पुनः सूचम निगोद अपरयाप्त होकर भवके प्रथम समयमें जघन्य प्रदेशबन्ध करने लगा यह सम्भव है। और इस अजघन्य प्रदेशबन्धका उस्कृष्ट काल दो प्रकारसे बतलाया है । प्रथम तो असंख्यात लोक- प्रमाण कहा है सो इसका कारण यह प्रतीत होता है कि कोई जीव इतने काठतक सूचम निगोद अपर्याप् पर्यायमें न जाकर निरन्तर अजघन्य प्रदेशबन्ध करता रहे यदद सम्भव है । दूसरे यद्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा है सो यह योगस्थावोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए । तात्पय यह है कि प्रथम उत्कृष्ट काछमें विवल्षित पर्यायके भन्तरकी मुख्यता है और दूसरे उत्कृष्ट काऊमे विधषक्षित योग- स्थानके अन्तरकी मुख्यता दे । इस प्रकार यहाँ ओघसे ज्ञानावरणके उत्कृष्ट भनुत्कृष्ट जघन्य भौर अज- घन्य प्रदेशवन्धके काऊका विचार किया । अन्य मूल व उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट जघन्य और भजघन्य प्रदेशबन्धके कालका विचार ओघ और भादेशसे इसी प्रकार मूठके अनुसार कर लेना चाहिए । अन्तरप्ररुपणा--इस अनुयोगद्वारमें भोघ भौर भादेशसे मूल द उत्तर प्रकृतियोंकि उत्कृष्टादिके अन्तरकाऊका विचार किया गया हे । उदाइरणाथ--ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक समयके अम्तरसे भी सम्भव है और कुछ कम अधपुदुगल परिवतन काठके अन्तरसे भी सम्भव है इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय भौर उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधंपुद्गल पारियतनप्रमाण कहा है । सथा इसके उत्कृष्ट प्रदेशबन्घका जघन्यकारू एक समय होनेसे यहाँ इसके भनुत्कष्ट प्रदेश बन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है भर उपशान्तसोहमें अन्तमुंहुते काउतक शानावरणका बन्ध नहीं होता इसलिए इसके अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तसुंहूत कहा है । यहाँ ताइप्रतिके दो पत्र नष्ट हो गये है । इस कारण तियंज्वगतिके कन्तरप्ररुपणाके अन्तिम भागसे खेकर अस्तरप्ररूपणाका बहुभाग सन्निकर्ष नाना जीवोंकी अपेक्षा भजविचय मागाभाग परिमाण क्षेत्र स्पशन भोर काल ये अनुयोगद्वार मड्ीं उपलब्ध होते । परन्तु उत्तर प्रकृतियोंके उत्कूष्ट भीर जघन्य अदेशबन्धके सन्निक्ष अनुयोगडारके मध्यके कुछ श्रुटित सागको छोड़कर अस्तर क्राल सन्निक्ष और नाना जीवोंकी अपेक्षा भड़विचय भादिका प्रतिपादन करने- घाले ये अनुयोगद्ार यथावत्‌ उपलब्ध होते हैं। इसकिए यहाँ उन अनुयोगद्वारोंकीं दिशाका शास करानेके ठिए उनके झाधारसे परिचय दिया जाता हे । सन्चिकषप्ररुपणा--सप्निकर्षके दो मेद हें-स्वस्थान सब्रिक्ष और परस्थान सब्निकर्ष । स्वस्थान सन्िकर्षमें प्रत्येक कमंकी विवक्षित एक ग्रकृतिके साथ बन्थकों प्राप्त होनेबाकी उसी कमेकी भय प्रकृतियंकि




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