ऋग्वेदका सुबोध भाष्य 1 | Rigvedka Subodh Bhashya 1

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Rigvedka Subodh Bhashya 1 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

Add Infomation AboutShripad Damodar Satwalekar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
हूँ० ६, मं० १-३५; सू० ४, सं०् १-१० 1 'चघीकाश्चर्थ चुद्धि मोर कमे है । वुद्धिसि जो उत्तम कमे दोते हैं उनसे नाना प्रकारके घन देनेवाछी यद्दी विद्या हे, ( सूदूतानां चोद्यित्री ) सत्यसे बननेवाले विशेष महत्व- पूर्ण कर्मोकी प्रेरणा करनेवादी यद्द विद्या है, ( सुमतीनां चेतन्ती ) झुम मतियोंको चेतना यह्दी देती है, यद्द विद्या ( केतुना ) क्ञानका प्रसार करनेके कारण ( मद्दों झणें: प्रचेतयति 9 कर्माके बड़े मद्दासागरकों ज्ञानीके सामने खुला कर देती हैं । छ्ानसे नाना प्रकारके कम करनेके मम मनुष्य दूचता अश्विनो, इन्द्र ह &- (९३) के सम्मुख खुले द्ोते हैं । जितना ज्ञान बढ़ेगा उतने नानां प्रद्धारके कमें करनेकी दाक्ति भी मनुष्यकी बढती जायगी थौर यद्दी मनुप्यके सुख्रोंको बढानेबाकी दोगी | मानवों की सच प्रकारकी बुद्धियोंपर इसी चिद्याका राज्य है । चिद्यासे ही सभी मानवोंकी सब प्रकारकी बुद्धियोंका तेज बढ सकता है | मानवी चुद्धियोंपर विद्याका ही साम्राज्य है । यद्द विद्याका उत्तम सूक्त दे भौर इसका जितना मनन किया जाय, उतना वद्द भघिक वोधघप्रद द्दोनेवाला है । विवि (२) द्वितीयो घ्लुवाकः । इन्द्र (४।१-१० ) मघुच्छन्दा चेश्वामित्र। । इन्द्र: । गायत्री 1 खुरूपछत्चुमुतये खुदुघामिव गो दुद्दे । जुहमसि यविद्यवि ॥ १ ॥ उप नः सचना गदि सोमस्य सोमपाः पिव । , . गोदा इद्रैवतों मदः ॥ २॥ अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम्‌ । मानों अतिख्य आयहि॥ ३॥ परेदि विश्रमस्ततमिन्द्रं पूच्छा विपथ्चितम्‌ । यस्ते सखिश्य आ वरमू 0४ 0 उत घुवन्तु नो निदो चिरन्यतथ्विदारत । दूघाना इन्द्र इदू दुबः ॥ ५॥ उत नः सुभगों अरिवोचे युदेस्स छप्टयः । स्यामेदिन्द्रसय मणि ॥ दे ॥ प्माशुमादयावें भर यज्ञषश्रियं चूमादनम्‌ । पतयन्‌ मन्द्यत्सखम्‌ ॥ ७ ॥ अस्य पीत्वा घातक्रतों घनो चुघ्राणामभवः । प्रावो वाजेपु चाजिनस्‌ 0 ८ ॥ ते त्वा चाजेपु वाजिनं वाजयासः शत क्रतो । घनानामिन्ट्र सातये ॥ ९॥ यो रायो शेवनिमेंहान्त्सुपार' खुन्चतः सखा 1 तस्मा इन्द्राय गायत ॥ १० ॥ अन्वयः-- गोहुद्दे सुदुचां इव, घवि दवि ऊतये सुख्- पकुत्नुं जुहूमप्ि ॥ १ ॥ दे लोसपा: ! नः सबना उप का- गद्दि, सोमस्प पिब, रेवतः मद: गोदा इत्‌ ॥ २ ॥ अथ ते मन्तमानां सुमतीनां विद्याम, (त्वं ) नः मा भति रुप, सा गदिं ॥ ३॥ परा इदि, यः ते सखिभ्या वर भा ( यच्छ- हि, ते ) विद्॑ं भस्तृतत विपश्चितं इन्द्ें इच्छ ॥ ४॥ दन्द्रे हृत्‌ दुब। दूघान:, चुदन्तु, नः निद्‌ः भन्यतः चित्‌ उत निः मारत ॥ ५ ॥ दे दस्म | भरित नः समभगान्‌ वो चेयु, उत कृष््यः (च वोचेयु: ), हन्द्ररप्र शर्मणि स्पाम इत्‌ ॥ ६ ॥ नाधवे है यज्ञश्रियं, नूमादनं, पतयत्‌ मन्द्यत्सखं भाझुं जा भर ॥ ७ ॥ दे छतक्रतो | नहप पीतवा चुब्नाणों घन भभवः , चाजिपु चाजिन॑ प्र झाव: ॥ ८ ॥ हे शातक्रतों | इन्द्र | चनानां सातये चाजेषु त॑ वाजिनें व्व। वाजयामः ॥ ९ ॥ यः राय भवनिः, मद्दानू सुपारः, सुन्वतः सखा, तरमे इन्द्राव गायत ॥ 3० ॥ अथे- गोके दोइदनके समय जिस तरद उत्तम दूध देने- वाली गौको दी बुलाते हैं उप्त तरदद, प्रतिदिन अपनी सुरक्षा के छिये सुन्दर रूपवाछें इस विश्वके निर्माता ( इन्द्र ) की हम प्रार्थना करते हैं ॥ १ ॥ दे सोमपान करनेवाले इन्द्र ! इमारे सोमरस चिकालनेके समय हमारे पास भाको, सोमरसका पान करो, ( तुम जैसे ) धनवानूका दषे निः- संदेदद गोवें देनेवाला है ॥ र ॥ तेरे पासकी सुमतियँ। हम प्राप्त करें, ( तुम ) हसें छोडकर लन्यके समीप प्रकट न दोनो, इसारे पास ही कानों ॥ ३0 (दे मनुष्य ! ) तू दूर जा शोर जो तेरे मित्रोिंके लिये श्रेष्ठ घनादि ( देता दे उस ) ज्ञानी, पराजित न हुए कममंप्रवीण इन्द्से पूछ छे भौर ( जो मांगना है वद्द उसे मांग ) ॥ ४ ॥ इन्द्रकी दी उपासना




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now