अभिधर्म कोष [भाग एक] | Abhidharm Kosh [Part 1]

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Abhidharm Kosh [Part 1] by वसुबन्धु - vasubandhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राप्ति होती है । आगम तो शास्त्रज्ञों के रूप में एवं अधिगम आचारवान्‌ धर्म के साक्षात्कर्ता बुद्धों के रूप में लोक में सुरक्षित रहता है । इनमें अधिगम धर्म का विशेष महत्त्व है । उसी के अन्तर्गत धर्म विचय का अंग है जिसके द्वारा जीवन में वोधि पाक्षिक धर्मों का आग्रह घारण करके सर्व क्लेशों की उपशान्ति का अभ्युपाय किया जाता है--(कोश १1३) । प्राचीन समय में अभिधमं का विशाल साहित्य था । यशोमित्र ने लिखा है कि अभिधर्म शास्त्र के कर्ता इस प्रकार कहे जाते थे--ज्ञान प्रस्थान के आयेंकात्यायनी पुत्र प्रकरणपाद के स्थविर वसुसित्न विज्ञानकाय के स्थविर देवशर्मा धर्मस्कन्ध के आयंशारिपुत्र प्रज्षप्ति शास्त्र की आयंमौदगल्यायन धातुकाय के पुरण संगीतिपर्याय के सहाकौष्ठिल (स्फुटार्थी पृ० १२) । किसी का मत था कि ज्ञानप्रस्थान शास्त्र की मूल था शेष छह उसी के अंग थे । इन सातों के चीनी अनुवाद उपलब्ध हैं । ज्ञानप्रस्थान सूत्र का आंशिक अध्ययन श्री पूसें ने प्रकाशित किया है। परम ज्ञान या अनुत्तर ज्ञान का प्रतिपादक यही शास्त्र अभिधर्म कहलाया । कालान्तर में इन्हीं सातों में महायान का आलयविज्ञान प्रतिपादक आठवाँ शास्त्र भी जुड़ गया । वसुबन्धु ने अपने से पुर्वेवर्ती सर्वास्तिवादी परम्परा के समस्त अभिधर्म शास्त्र का मंथन करके कोश के रूप में अपने नये शास्त्र की रचना की । सूलग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय ६०० कारिकाओं में उपनिबद्ध किया गया । उसी पर व्रहत्‌ भाष्य स्वयं उन्होंने ही रचा । इस ग्रव्थ में आठ कोशस्थान हैं जिनके विषय इस प्रकार हैं-- १ धातु २ इन्द्रिय ३ लोकघातु ४ कमें ५ अनुशय ६ आयंपुद्गल ७ ज्ञान ८ ध्यान । बुद्धवोष-कृत विशुद्धिमग्ग के पड्ना विभाग में भी अभिधर्म सम्बन्धी लगभग ये ही विषय कुछ क्रमभेद से समाविष्ट थे । आचायें भदन्त घोषक ने अभिधर्मामृत शास्त्र नामक एतट्विषयक ग्रन्थ की रचना की थी । उसका विषय विभाग भी वसुबन्धु कोश से कुछ क्रमभेद के साथ मिलता है । श्री शान्तिभिक्षु ने चीनी अनुवाद से पुनः उसका संस्कृत में उद्धार किया है । वसुबन्धु का महान्‌ अभिधर्मकोशशास्त्र भी मूल संस्कृत में नप्ट हो गया था । उसके दो चीनी अनुवाद (परमाथें कृत और शुआन-च्वाड्‌ कृत) एवं एक तिव्बती अनुवाद सुरक्षित है । शुआन च्वाड्‌ चीनी के अनुवाद का ही पुसें ने फ्रेंच में अनुवाद किया । उसी का आचायँ जी ने हिन्दी में उल्था किया । पूसें ने तिब्बती अनुवाद के आधार पर कारिकाओं का संस्कृत में उद्धार किया था । पीछे जब यशोमित्रकृत स्फुटार्था व्याख्या प्राप्त हुई तो तुलना करने से विदित हुआ कि उन्हें कितनी सफलता मिली थी और वसुबन्धुकृत रूप उनसे कितना श्रेष्ठ था । इधर सौभाग्य से श्री राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से जो ग्रन्थराशि लाये थे उसमें अभिधर्मकोशकारिका और अभिधर्मकोशभाष्य की मूल संस्कृत प्रतियाँ मिल जाना सबसे अधिक आनन्द की बात है । _. बे-फासगर0 भाग ३० (१६३०) तथा मलॉज चिनुआ ए बुधीक भाग १ पू० ७३-७४ । रे. बौंघधर्म दशन पृ० ३१२ की पाद-टिप्पणी में आचार्य जी ने लिखा है कि अंग्र जी _ अनुवाद भी उन्होंने किया था ।




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