कठोपनिषद | Kathopanishad

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Kathopanishad by बद्रीदत्त शर्मा - Badridatt Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ कठो पनिषदि- सुख से (शयिता) सोबेगा और ( बीसमन्यः ) विगतरोष हो कर ( त्वामू ) तुक को ( सृत्यमुखात्‌ ) सौत के संह से ( मसुक्तमू ) उठा डुबा ( ददुशिषानु ) देखेगा ॥ १९ ॥ _ झावाथे -इस घायेना को सुन कर सत्य नथिकेता खे कहता शै कि तेरा पिता जैसा पहले तुक से स्नेह झाव रखता था वेता ही अब मुक्त से प्रएरत होकर तु पर द्यालु होगा झौर भब विगतरोष होकर शेष रात्रियों में सुखपूबक सोबेगा और तुझे सौत के सह से खुदा छुवप पाकर अत्यन्त छृचिंत होगा ॥ ११ ॥ स्व लोके न भयं किजुनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति । उभे तोत्वोइशनाय।पि- पासे शोकातिगों मोदते स्वगंलोके ॥ १२ ॥ _ सरखायें -(स्वग छो के) स्वर लो कन्नमो झष सें (किलून) कुछ सी ( सयमू) झय (न अस्ति) नहीं है (न तत्र ) न वहां पर (त्वं ) तू-सत्यु है ओर (न) न कोइ ( जारया ) बुढ़ापे से (बिर्भाति ) डरता है (अशनायाधिपासे ) सूख आर प्यास (चफे) दोनों को (तो त्वी) तरकर (शो का लिंगः) शोक से वजिंत पुरूष ( स्वगं छो के ) सो में ( सोदते ) झानन्द्‌ करता है ॥१९॥ सावाधे -नचिकेता द्वितीय वर की याचना करता हुखा सृत्यु से कहता है कि स्वगंलोक में कुछ भी अय नहीं है । वहां पर न रोग हो होते हैं भर न खढ़ापा हो किसी को सताता हैं जोर तृ-सत्य मो वहां पर आक्रमण नहीं करता ।




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