एक बूँद सहसा उछली | Ek Boond Sahasa Uchhli

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Ek Boond Sahsa Uchhli by सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन - Sachchidananda Vatsyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निवेदन श्श के रूपमें पहचाना जा सकता है तभी सम्पन्न और दरिद्र की पहुचानके आधार आधिक मूल्य न रहकर मानवीय मूल्य हो जाते हूँ--जीवनके मूल्य ही तो मानवीय मूल्य हैं । वास्तवमें जो ऐसे पाठक हैं उन्हें थह भी नहीं बताना होगा कि पुश्तक में बया नहीं है । उनकी सदाशयता--और सत्ता--स्वयं नीर-क्षीर करती चलेगी । उन्हें जो मिलेगा उतना ही केवल उनकी नहीं बल्कि मेरी थी उपलब्धि होगा । जो नहीं मिलेगा वह उसमें है ऐसा कहनेकी हठधर्मी मैं न करूँगा । बया ऐसे पाठक बहुत थोड़े हैं ? कहा जाता है कि मैं अभिजात-वर्गका हूँ ( कहनेवालोंके लिकट अभिजात का जो भी भर्थ हो ) भर इसलिए अल्पसंख्य पाठकोंके लिए ही लिखता हूँ---अभिजात पाठकोंके लिए ही । कोई वयों जान-बूझकर अपने पाठकोंकी संख्या कम करना चाहेगा यह मैं नहीं जानता । हर कोई मेरा लिखा हुआ जरूर पढ़े ही ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है ऐसी कोई अवचेतन कामना भी मेरी न होगी । किस्तु हर कोई मेरा पाठक हो सकता है ऐसा मैं सानता हूँ । माननमें मेरी श्रद्धा है । मानव-मात्रकों में अभिजात मानता हूँ । मेरा परिश्रम उसके काम आते इसे मैं अपनी सफलता मानता हूँ । इस पुस्तक जो परिश्रम हुआ है जो कुछ प्रस्तुत किया गया है वह उस समृद्धिमें कुछ भी योग दे सके जिसके मानदण्ड शार्धिक नहीं हैँ तो में अपनेकों घन्य मानूँगा । योग बह दे सके या न दे सके उस परिश्रमके पीछे मेरी भावना यद्दी रही है जो कुछ मेरी ओरसे निवेदित है उसके मूलमें यहीं साध है । --सच्चिदानम्द चात्स्यायन




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