मन्त्रयोगसंहिता | Mantryogsanhita

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Mantryogsanhita  by पं. श्री विश्वनाथ शास्त्री - Pt. Shri Vishvanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(०) उपर्युक्त सात वैदिकद्शोन ग्रम्थ पफाश के साथ साथ इम योग के किया सिंदांश सम्बन्धीय पांच ग्रन्थ दिन्दी श्नुवाद के साथ मकाशित करने की इच्छा करते दें । उपासना का मूलमित्तिरूप योग का किया सिद्धांश चारभागों में विभक्क है । यथा मन्त्रयोग, दठयोग, लययोग घोर राजयोग । इन चारों प्रयालियों के अलग पलंग अड्ध, लग अलग ध्यान घोर प्रेतग लग 'अपि- कार निर्णीत हैं । नाम शोर रूप के अवलम्वन मे जो साधन प्रणाली निर्णीत हुई है उसको मन्त्रयोग फदते हैं । मन्यगोग रालद शों में पिगक् दै छोर उसके ध्यान को स्थूलध्यान कहते हैं । स्थूलसरीर की सहायता से चित्तदत्ति निरोध करने की जो प्रणाली है उस फो दृठयोग कहते दें । इठयोग सात श्रद्मों में विभफ़ है और इठयोग फ्रा ध्यान ज्योतिध्यीन नाम से '्रमिदित है 1 लययोग श्र भी 'प्रथिक उम्रत अवस्था का साधन हैं । जगद्‌ प्रसविनी फुल फुणहलिनी शक्ति जो सफल शरीर में ही विश्वमान है उसी शक्ति को “ गुरूपदेशानुसार जागरतू करके शरीर सहल्नार में लय क्ररके चित्तदति निरोध फरने की जो प्रणाली दे उसको लययोग फदते हैं । लययोग नो श्रद्मों में वि- भक्त है श्र उसके ध्यान का नाम बिन्दु ध्यान हैं । ५ योगप्रणालियों में स्ेभ्रेष्ठ योगपयाली का नाम राजयोग है । उल्िखित चिविध साधक को उल्तम धवस्था में राजयोग की सदायत्ता लेनी ही पड़ती है। केवल विचारशफ़ि द्वारा चित्तवृत्ति निरोध करने की जी प्रणाली है उसयो राजयोंग कहते हैं । राजयोग सोलद श्र्मों में विभक्क हैं श्रौर उसका ध्यान घ्रनमध्यान नाम से 'भिदित्त दोता है । उपसुक्न तीन योगप्रणालियों करी समाधि को संविकरप समाधिः कहते हैं किन्तु राजयोग को समाधिदी निर्विकल्प समाधि है 1 उपयुक्त चार प्रकार की यागपरणाली के झअद् और उपाज वेद, 'ार्पसंहिता, पुराण एवं तन्त्रादि में श्यनेक स्थानों में ही देख पड़ते हैं। फिन्तु ्ाथिकारान- सार इन प्रत्येक की क्रियाएँ अलग अलग शोर यधाक्रम किसी ग्रन्थ में भी नहीं मिलती हें । प्राचीन समय में गुरु धर शिप्य सम्प्रदाय का ध्धिकार उन्नत था इसीसे ही इस प्रकार साधन विभाग की 'थावश्यकता नहीं थी, किन्तु ब्रेमान समय में इन चारों साधन प्रयालयों के झलग श्रलग सिद्धान्त पद गा




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