दी विक्रमांणिकादेवा चरित्र महाकाव्य | The Vikramankadeva Charita Mahakavya Vol-ii

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The Vikramankadeva Charita Mahakavya Vol-ii by पं. श्री विश्वनाथ शास्त्री - Pt. Shri Vishvanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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० ० विफक्रमा डूदेवचरितम्‌ । [ अध्दमःर नूपुरास्तेपां माले ताभ्यां जद्धयोर्धारिताम्यां तदघाजेन कुडकुमेन केसरेण बाल्लभ्यात्‌ वल्लभत्य भावस्तस्मादतिप्रेम्या कृतमालवार्ल “स्यादालवालमाबा- लसावाप.” इत्यमरः । यस्य तत्‌ कृतालवालमिव भाति । लतायास्सरक्षणार्य पशूनां संचरणात्‌ भक्षणाद्या जससेक्द्यरा भरणार्य वा यया जनेः स्नेहात्‌ अलबाल निर्मापते तयेद कुडकुमेन जद्धालताया अभित” आलवाल जिहितम्‌ । नेय कारुचनी भज्जीरमाला जद्धयोरिति भावः। मापा ., जा सुन्दर भौवो वाली चन्द्रछेखा के ।ने के पैजेबों के मिपर से मानो उसके दोनो जघा रूपी लताओ का केसर से थाल्‍्म बनाया गया हो ऐसा मालुम होता है। अर्थात्‌ जैसे थाछा बनाने से उसमें पात्री ठहर कर छता को पुष्ठ करता है. और पशुओ से भी उसकी रक्षा होती है, वैसे ही उसकी जघाओं को पुष्ट करने के लिये केसरझहूपी मिट्टी से याला बताया गया ही ऐसा मालुम होता है । लम्मिताः कदलीस्तम्भास्तदूरुम्पां परामवम्‌ न अत्यन्तमृदुमिलब्धो जड़े: कद जयडिण्डिमः ॥१५॥ अन्चय+३ कदलीस्तम्भाः तदूरुभ्यां परासव॑ लम्मिताः। अत्यन्तमदुभिः जड़े! जयडिण्डिमः क्‍य लब्घः। ध्याख्या कंदलोतां स्तम्भा: कदलीस्तस्मास्तदुरम्पा तस्या ऊछ तदूरू ताभ्यां पराभपे पराजपे लम्मिताः प्रापिता.। अत्यतमृदुभिरतिकोमलेः स्वभावतस्सरलैश्च जड़े: शीतसः “शौत॑ गुणे तद्ददर्या सुधोमः शिशिरों जडः” इत्यमर:। मन्दे. मुर्खेरित्ययः जयपडिण्डिसो विजयदुन्दुभिघोषः कय रूब्धोर्शनित', ते क्वापोत्य्थ:। अर्था- पत्तिरछड्भार: ॥ हि सापा इसके दोनी ऊरुओो से केले के खम्बें पराजित कर दिये गये थे। अत्यत कोमल या सीधे साघे तथा ठण्डे या सुर्खों से विजयदुन्दुमी का घोष कही भी जआाप्त नही क्या जा सकता । अर्थात्‌ उसके ऊछ, ढैले के खम्भे से भी अधिक सुन्दर पे 1




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