महर्षि पंतजलि और तात्कालिन भारत | Maharshi Pantjali Aur Tatkalin Bharat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्वितीय निश्लास । काल सनिणय-कई ऐतिहासिकों की ऐसी प्रवृति होती है कि यदि कहीं किसी मनुप्य या पदार्थ का केवल नाम आ जाता है तो वह झट उन्हीं के आधार पर अपने बड़े २ परिणाम निकाठ कर एक बड़ा विश्ञाल भवन बनाने को कटिबद्ध हो जाते हैं, परन्तु दूसरी ओर ऐसे भी महाशय हैं जो नामों से इतना घवराते हैं कियदि उनसे कुछ सहायता मिलने की संभावना भी हो तो भी उसकी कुछ परवाह नहीं करते और यदि करते भी हैं तो रंगदार चइमा पहनने के कारण वहीं तक करते हैं यहां तक कि उनकी मनोवांच्छा यी' उनका काल्पनिक विचार लिद्ध या पुष्ट होवे, यदि उनके मत के प्रतिकूल कोई परिणाम निकले तो उसे स्वीकृत करने को वह कदापि तय्यार नहीं होते । ऐति- हासिक सच्चाईयों पर ही नहीं प्रत्युत प्रत्येक प्रकार की वैज्ञानिक सच्चाइंयों पर भी पहुंचने के लिये इस बात की आवश्यकता है कि हम घटनाओं को देखकर उनसे जो परिणाम निकल उन्हें परिणास समझे, परन्ठु यह ठोग उठटा पहले कोई काल्प- निक सिद्धान्त मुन में जमा ठेते हैं और फिर उसके अनुकूल जो २ घटनायें मिरें उन्हें तो लेते जाते हैं और जो प्रतिकूल मिटें उन्हें छोड़- ते जाते हैं या उसका किसी न किसी प्रकार से-- चाहें वह ठीक हो या घुरा-- खण्डन करने का सिरतोंड प्रयत्न करते हैं, किसी ऐतिहासिक सच्चाई के दूँडने का यह प्रकार इतना बुरा और इतिहा- स के मददत्व को घटाने वाला है कि जो किसी वास्तविक परिणाम पर पहुंचाने की अपेक्षा मनुष्यों को इधर उधर पगडण्डियों पर घुमा- ता रहता है, यह बात सच है कि हमें केवल नामों के आधार पर




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