भारत के दर्शन में संगीत | Bharat Ke Darshan mein Sangeet

Bharat Ke Darshan mein Sangeet by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हैं वह । लेकिन ललाट से पीछे की भ्रोर संवारे गये घने श्वेत केश से शोभित अपने विशाल एवं तेजोद्दीप्त मस्तिष्क तथा श्रसाधारण रूप से भावपुर्ण मुखमण्डल के कारण वह देखनें में लघुकाय नहीं प्रतीत होते । उनकी मुखाऊंति से श्राभिजात्य टपकता है । प्रत्येक स्थिति में चाहे चह ध्यानपुर्वक बड़े मनोयोग से किसी की बात सुन रहे हों किसी समस्या पर एकाग्रचित्त होकर गम्भीर चिन्तन कर रहे हों अ्रथवा किसी विशेष वाक्पटुतापुर्ण उक्ति पर सन-ही-मन प्रसन्नता से मुस्करा रहे हों उनकी मुखमुद्रा उनकी मनोदशा को सशक्त रूप से श्रभिव्यंजित कर देती है । राजा राव को झपने बौद्धिक जीवन में अपने चिन्तन-मनन के क्षणों में किसी प्रकार का विक्षेप पसन्द नहीं । ऐसे समय में यदि कोई उनसे मिलने भ्रा जाये तो वह शील-संकोच को परे हटा कर श्रागन्तुक से साफ कह देंगे कि वह नहीं मिल सकते क्योंकि वह चिन्तन कर रहें हैं। लेकिन टेक्सास विश्वविद्यालय में जहां वह दर्शंनशास्त्र के अतिथि-प्राध्यापक हैं वह . विद्यार्थियों के साथ अपने धैर्य प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध हैं। भ्रपने विद्यार्थियों के सम्मुख वह घण्टों अपने विचारों की जिनमें नये अ्रमेरिका के बारे में उनके स्वप्न भी सम्मिलित हैं व्याख्या करते नहीं थकते । राजा राव ने श्रपनी स्मृति को कुरेदते हुए कहा मैं पहले-पहल १६४० में अमेरिका आया क्योंकि फ्रांस में मेरे एक मित्न ने मुझसे कहा था कि श्रमेरिका महत्वपूर्ण होता जा रहा है। उस समय भी इस देश नें मुझ पर गहरी छाप छोड़ी थी । मुझे इसकी महानता का वोध हो चुका था श्रौर मैं ऐसा श्रतुभव करने लगा था कि यहां कुछ भी असम्भव नहीं है यहां प्रत्येक व्यक्ति को झ्रपनी योग्यता श्रौर क्षमता प्रदक्षित करने का श्रवसर सिल सकता है । उन्होंने श्रागे कहा लेकिन सच कहूं तो तब मुझे यह देश बौद्धिक दृष्टि से स्फूर्तिप्रद या उत्तेजक नहीं लगा था । उन्होंने बताया कि उन दिनों विश्वविद्यालयों में भूतपूर्व॑ सैनिकों की भरमार रहा करती थी । द्वितीय महायुद्ध के कारण उनकी शिक्षा का जो सिलसिला टूट गया था उसको जोड़ने की वे कोशिश कर रहें. थे । अभाव और तंगी का जीवन बिताने भ्रौर कष्ट झेलने के बाद श्रव ये लोग सुरक्षा तथा सुविधा पाने के लिए लालायित थे । लेकिन झ्रपने जीवन में सामान्यता भर सुव्यवस्था लाने के लिए उनके इस भ्राग्रह में भारतीय दार्शनिक को कोई दिलचस्पी न थी। परन्तु एक दशाब्द से कुछ अधिक समय के वाद जब उन्होंने दर्शनशास्त्र के झ्रघ्यापन के लिए टेक्सास विश्वविद्यालय का प्रस्ताव स्वीकार किया (मेरी पहली नौकरी थी वह विनोद में उन्होंने कहा ।) और पुनः अमेरिका श्राये तब उन्होंने अमेरिकी युवकों को. मानसिक उद्देलन की स्थिति में पाया । उन्होंने कहा अमेरिका के युवक सम्भवतः झाज संसार के अधिकतम कुतुहलजनक युवजन हैं। में अपने छात्रों पर मुग्ध हुं--वें स्पप्टवक्‍्ता हैं तो साथ ही गम्भीर भी हूं । राजा राव को विश्वास हो चुका है कि अमेरिका के श्रग्रणी युवा-वर्ग की रुचि मुख्यतः दादनिक सत्य की खोज में है । वह विपुल वैभव और समृद्धि के प्रति श्मेरिकी युवकों की उदासीनता श्रौर श्राधारभूत मान्यताओं के अनुसार जीने की उनकी उत्कण्ठा की सराहना करते हैं। त्वरित इंगितों एवं भंगिमाओं से अपनी बात पर बल देते हुए राव ने कहा श्रमेरिकी लोगों को भौतिकवादी माना जाता है लेकिन वे निश्चय ही ऐसे नहीं हैं। अमेरिकावासी अभौतिक होता है । उसकी रुचि केवल जीवन के सारतत्वों में होती है । यही कारण है कि वह भोग्य वस्तुझ्नों का इतनी वीपज्रता श्र सहजता से परित्याग कर देता है। लेकिन राव के इस कथन को चुनौती देते हुए उनसे पुछा गया क्या यह सही नहीं है कि शभ्रमेरिकी लोग सम्पत्ति का परित्याग इतनी सरलता से इसलिए कर देते हैं कि वे श्राधिक दृष्टि से सम्पन्न हैं और जब चाहें नयी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं? राव ने तपाक से उत्तर दिया नहीं विल्कुल नहीं । यह बात इससे कहीं झ्धिक जटिल है। जब भंग्रेज धनी थे तव वे वस्तुझ्नों से प्यार करते थे श्र उन्हें अपनी सम्पत्ति की चिन्ता रहती थी । लेकिन झ्रमेरिकी युवकों को मूलतः धन-दौलत में कोई दिलचस्पी नहीं होती । निस्सन्देह वे श्राराम से जिन्दगी विताना चाहते हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे जीवन . के स्वरूप को उत्कृष्ट बनाने उसकी गुणवत्ता को विकसित करने की श्रोर झधिक ध्यान देते हैं। वे जीने को महत्व देते हैं। उनकी रुचि श्रस्तित्व का झ्रानन्द प्राप्त करने में है । पुस्तकों से लदी भ्रपनी मेज के पार बैठे मुस्कराते हुए उन्होंने कहा उन्हें तो अब केवल जीने की कला सीखनी है। अमेरिकी लोगों की स्वाभाविक श्रभौतिकता एवं दार्शनिक प्रवृत्ति का श्रौर अधिक प्रमाण देते हुए राजा राव ने श्रमेरिकी साहित्य की श्रोर संकेत किया । उनकी दृष्टि में रात्फ वाल्डो इमर्सन हेतरी डेविड थोरो श्रौर बाल्ट द्विटर्मन ऐसे लेखक थे जो दाशनिक सत्य की खोज में भौतिक चिन्ताओं से ऊपर उठे थे । वह मानते हैं कि यह मात्र एक संयोग नहीं है कि श्रमेरिकी साहित्य की यह त्रिमूत्ति भारतीय विचारधारा से श्रत्यघिक प्रभावित थी । राव से कहा जिसे अमेरिका को जानना हो वह ह्विटमैन को श्रवश्य पढ़ें । अपने साहित्य में ह्विटमैन उसी अमेरिका को टटोल रहे थे जिसका विकास श्राज हो रहा है । वह इस देव के चरित्र को बड़ी गहराई से समझते थे । उन्होंने कहां कि श्रौद्योगीकरण की अवधि में श्रमेरिकी लोगों की दार्यनिक प्रवृत्ति कुछ दब सी गयी । राव जिनका मंसुर-स्थित ब्राह्मण परिवार भझ्रपनी पाण्डित्य-परम्परा को तीन सौ वर्षो से भी अधिक प्राचीन मानता है अधिकांश अमेरिकी जनता की भौतिक दशा को समुन्नत करने के लिए किये गये भगीरथ प्रयत्न को एक दुघटना मानते हैं। उन्होंने कहा एक पीढ़ी पुर्व के झ्रापके पूर्वजों की तुलना में श्रमेरिकी लोकतन्त्र की स्थापना करने वाले फाउण्डिंग फादर्स की प्रवृत्ति वहुत-कुछ हिप्पियों जैसी थी । टामस जैफर्सन के युग में लोगों को वस्तुझ्नों की भौतिक पदार्थों की उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी जीवन-पद्धति की उत्कृप्टता की थी । वे प्लेटो सर गिर निपलगरा




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