वैदिक साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास भाग 2 | Vaidik Sahitya Ka Alochanatmak Itihas Bhag-2
श्रेणी : इतिहास / History, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.16 MB
कुल पष्ठ :
201
श्रेणी :
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No Information available about डॉ सुधिकांत भारद्वाज - Dr. Sudhikant Bhardwaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शिक्षा वेदाय 7 शिक्षा वेदांग का वर्ण्ड विषय शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति चाह किसो भी घातु से हो इसका मुख्य लक्ष्य उपदेश दना है वैदिक मन्त्रा का ययेप्ट उच्चारण सिदाना ही शिक्षा देदाग कर प्रमुख प्रयोजन रहा है। तलिरीयोपनिपद् से शिक्षा के अननरगेठ छह अप गिनाए हा दरें स्वर माबा वल साम तया सन्तान । दर्ष से हात्प्य भाषा ध्दनिया से है भाषा मे कुल क्तिन वर्ण हैं इसे बताना सदस प्रमुख हैं। वर्ष के अनक पतन्नो यया--पच्चारप प्रक्रिया उच्चारण स्यान आदि पर विचार करना शिक्षा का प्रमुख पट्ेर्य हैं। स्वर से तात्ययें उदात्तादि स्वर्ों स है। मात्रा से तात्पर्य हस्त दी प्लूतादिं माताओं स हैं जो वर्ष के उच्चारण स प्रयुक्ग हुए काल पर निर्भर है। बल से तात्पर्य प्रय न से है 1 वर्ष के उच्चारण से स्पृष्ट ईप स्पृप्टाडि अरुयलों को ही बल कहा गया है । साम से दा पर्य मन्वों के गायन से प्रवुक्त सामजस्प स है। यह विशेषता सामवेद के मत्वों में प्रयुक्त होता है। सम्दान का बर्थ हैं व्यवघान ने होना । मन्त्र का सहिता पाठ हो सन्तान से अभोप्ट है । प्रातिशाव्य मोर शिक्षा ग्रन्थों में मुख्यत इन्हीं विपयों का वर्णन है । शिज्ञा वेदाग का मुख्य प्रयोजन वेदमन्त्रो मे आने वाले उच्चारण दोपा का निवारण करना था 1 वेदमन्व जब यन्नों के विपय हो गए हो उनकी पवित्रता को असुण्य रखना नितान्त आवश्यक हो गया । अत डुप्ट उच्चारण को टूर करना बाचायों के लिए एक चुनोती वन भा था क्योंकि भाषा क क्षेत्रीय विकास के साथ-साथ अनेक लेतीप प्रभाव मापा पर पहने लगे दे । यत देदमन्त्रों के उच्चारण मे दोप आा जाना स्वामादिव टी था इन दोषों स देदों को वचाने के लिए व्यवस्थित रुप में शिक्षा देना मादश्यक था । पतजलि ने शब्दानुशानन के प्रयोजनों स सबसे प्रमुख प्रयोजन वेद की रन ही दठाया है--रक्षा्थ वेदानानध्देय व्याकरणमु पतनलि ने व्याकरण के गौज प्रयोजनों मे भी शुद्ध उच्चारण वी आवश्यकता पर बल दिया है | जपरव्द बोलने ने अनिप्ट प्राप्त होता है इसके समधंत्र मे अयुरों दे नाग हो जाने का रुदाइरप भी दिया है--तिश्तुरा हेतयों हेलय इठि दुर्वत्त परावभूवु । तस्मादु ब्राह्मणेन न म्लेच्टितवें मापमापिठदे म्लेच्छो ह वा एप यदपथव्द । एक स्वर के अपराध को भी यक्षम्य माना जाता था दुष्ट शब्द स्वरठों वगठों वा मिध्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह । सवाग्वज्ों यजमान टिन्स्ति ययेत्दशयु स्वरतोश्सराधातु 0 बंदी की रक्षा के प्रयोजन से ही शिझा ग्रत्यों का शास्त्र के रूप में विकास हुआ 1 शिक्षा वेदाग में उच्चारप के नियमों के अतिरिक्त उच्चारप दोष स्वर छन्द सन्यि वर्ष-विकार नादि वर्धित हूँ । न
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