देव शिल्प भाग 1 | Dev Shilp Bhag 1

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Dev Shilp Bhag 1  by आचार्य देवनन्दि - Acharya Devnandi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तटफ्रान्त स्दिरों को लक्य में रस्वकर पुन एक सर्वोयोण्री रचना की उरवरुयकता प्रतीत हुई । शाहजढ़ (म.2. ) में उर्केय हुतीया १९९९ को इस कार्य का प्रारंभ किया / प. पू. जुरुदेद की उत्सीम कृपा एवं वरद हस्त के प्रभाव से थह़ कार्य २००० में जी पार्वनाय प्रमु के समवशरण विहार स्थल मैं चातुररारि स्थापना के समय समरप्त किययए यदि यह कार्य द्ब्कर था फिर हमारे संशस्थ राबुणणों ने हमें पूर्ण सहकार किया तथा हु देवी की इस उशरायना में उत्त्यंत भक्तित एवं वात्सल्य पूर्ण सहयोण दिया । इसके प्रम्शद रे गरम कार्य उर्ल्प समय से सम्पन्ल हो जया / वास्तु चिन्तामणि की ही भांति जन सामान्य के लिये उपयोगी मन्दिर वास्तु एवं स्थापत्य शास्त्र की रचना देव रिल्प * का प्रारंभ किया / इस फ्रम्य मे सुगार मावा में प्यारह प्रकरणों में मन्दिर निर्माण से संबॉदित सम्री पहलुउरों की रमु्चित जानकारी प्रस्तुत की है । वर्तमान दुण में निर्मित किए जाने वाले मल्दिरों में कौन-सा ल्रमणि कहां एवं केरे किया नाले चाहिये, इस हेतु वास्तु शास्त्र एवं प्रतिष्ठा ग्रल्यों का समन्वय कर निर्णय करना उरवर्यक है / (शिल्प शास्त्र के पररिमािक शब्द जल सामान्य की मादा रे पदक हैं। 3अत्तएव सावदान्री रखना उरवस्यक है / शिल्प शास्त्र में कथित शब्दों एवं उद्धरणरें का शब्दार्थ नड़ीं बरन्‌ भावार्थ ही ग्रहण करनर उरावस्थक है। पारंपरिक शिल्पकला का उर्ब्ययन करने पर इन शब्दों कार उ्थ स्पष्ट होने लजता है? नैनाचायों ने प्रतिष्ठर ग्रन्थों से मन्दिर एवं प्रतिमा के प्रराण के वर्णल किए है । इतर शिल्प शास्त्रों का उरब्ययन एवं समम्वय करने पर डी सही निर्णय किया जा सकता है । विभिन्‍न शिल्प शास्त्रों में प्राप्त मतमेदों का समन्वय विद्रान सूजबार, स्थापंत्य वेत्त। एवं परम पूज्यर उरचार्य परमेन्ठी के माज्दिशल पूर्वक करना च्ाहिये। देव शिल्प शास्त्र की रचना का उद्देश्य उन उपासकों का मा्गदर्रनि है जो निरन्तर जिन पूछ में रत है; उशजामी पीढ़ी के लिये उपयोगी महान पुण्य का अर्जन जिन मन्दिर लिमण से 3दठ जुना पुण्य मन्दिर के जीयॉट्विर में बताया जया है / जीणॉटद्विर करने से द्रत्यील कलाकृति का संरक्षण होता है / पुण्यार्णक उररायक भावोत्कर्ष में नियमों का उल्लंबन कर णीग्ॉट्रार के जाम पर उरलुपयुक्त लि्माण उर्थवा विधटन कर डालते हैं। इस निराकरण भी इस रचला में करने का प्रयास किया जया है । प्रम्द की सामप्री के संघयन में हरी शिष्य विदुष्री उरिकिए अर १०५ सुमंगलाऊदी सात जी की उर्तर सूमिका रही । असराता क्मोदय के कारण शारीरिक स्थिति प्रतिकूल होने पर मी उरापने इस कार्य हेतु अरयक परिश्रय किया । वे प्रतिकूल शरीरिक स्थिति के बावजूद मरी निरंतर ज्ञन्भ्यास में रत रहती हैं। लिरतिच्ार रंदाप के कठिन मर्ज पर चलकर रत्मत्रय का पालन करती हैं । में उन्हें उरणना संजलमय उशर्प्रीवाद प्रदान करता हूँ कि माताजी रीडर ही उस्लुकूल स्वास्थ्य एवं अशत्मोप्लब्यि की प्राप्ति करें। देव शिल्प ग्रन्थ की दिरिवत्‌ समायोजन का जुरुतर कार्य हमारे उरनन्य म््त, देव शास्त्र जुरु के उर्नम्य उराराधक, उरा परम्परा के पोषक, कर्मठ व्यक्तित्व के धनी, दिद्रता की उरग्र भूमिका के लिवाहि से लिपुण, वास्तु शास्त्र अर नरेन्द्र कुमार गेनर बड़जात्या, डिन्दवाड़ा ने कियर है तथा ग़न्य को सवॉफ्योज्री बनाया है / वे पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के निर्वहन में सतत्‌ व्यस्त रहते ड़ुए भी लिरन्तर जुरु उदज्ञा पालल में तत्पर रहते हैं। में उरपने इष्ट उशराध्य देव श्री १००८ चिन्तामणि पा््वनाथ स्वामी से उनके सुरव समुद्धि मय जीवल की मंगल कामना करता ढुउर उन्हें उरपना शुमाशीय प्रदान करता हूँ। वे इसी तरह देव शास्त्र सुरु की सेवा में तत्पर रहें ।




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