जीवनलीला | Jeevanleena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड् देते हैं। जिस ससारवा प्रथम यात्री है नदी। जिसीलिजें पुराने यात्री लोगोने नददीके अदुगम, नदीके सगम और नदीके मुखको अत्यत पतित्र स्थान माना है। जीवनवे प्रतीवके समान नदी कहासे आती है और वहां तक जाती है? दान्यमें से आदी है और अनतमें समा जाती है । शून्य यानी अत्यत्प, सूद्म विन्तु प्रबल, और अनतके मानी हैं विशाल और शात । शून्य थौर अनत, दोनों अवसे गूढ हैं दोनो अमर है। दोनो ओक ही हैं। शून्यमें से अनत -- यह सनातन लीला है। बौदल्या या देवकीके प्रेममें समा जानेके लि जिस प्रकार परब्रह्मने वालरूप घारण विया, अुसी प्रचार कारुण्यसे प्रेरित होकर अनत रवय शून्यरूप धारण करके हमारे सामने खड़ा रहता है। जैसे जैसे हमारी आकलन-दक्ति बढती है, बसे वैसे शून्यवा विकास होता जाता है और अपना ही विकास-वेग सहन न होनसे बह मर्यादाका अुल्लघन करके था भुसे तोडकर अनत बन जाता है--विदुवा सिंधु बन जाता है। मानव-जीवनकी भी यही दशा है । व्यवितसे कुटुब, कुदुबसे जाति, जातिसे राष्ट्र, राष्ट्रसे मानव्य और मानव्यसे भूमा विश्व -- मिस प्रकार हृदयकी भावनाओका विकास होता जाता है। स्व-भाषाके द्वारा हम प्रथम स्वजन।का हृदय समझ लेते हैं और अतमें सारे विश्ववा आकलन कर लेते है । गावसे प्रान्त, प्रान्तसे देश और देशसे विश्व, जिस प्रवार हम “स्व का विकार करते करते ' सर्व ' में समा जाते है । नदीका और जीवनका श्रम सामात ही है। नदी स्वथर्म-निप्ठ रहती है और अपनी कूल-मर्यादाकी रक्षा वरती है, जिसीलिओे प्रगति बरती है। और अतमें नामरुपकों त्यागयर समुद्रमें अस्त हो जानी है। अस्त होने पर भी वह स्थगित या नप्ट नही होती, चलती ही रहती है । यह है नदीवा श्रम । जीवनका और जीवस्मुक्तिदा भी यही श्रम है। नया जिस परसे हम जीवनदायी शिक्षाके श्रमके बारेमें बोध लेंगे? श९रर




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