निराला की रचनाओं पर स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव | Nirala Ki Rachanayo Par Swami Vivekanand Ka Prabhaw

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Nirala Ki Rachanayo Par Swami Vivekanand Ka Prabhaw by शिव कुमार मिश्र - Shiv Kumar Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यथार्थ के धरातल पर भी निराला का संघर्ष चल रहा था । पुत्री सरोज बीच-बीच में बीमार हो जाया करती थी । पुत्र रामकृष्ण भी साथ थे । निराला नियमित रूप से पुत्र की फीस न दे पाते थे । .......... रामकृष्ण ननिहाल चले गये । कुछ दिन में लौट आए और अलग मकान लेकर रहने लगे । ट्यूशन करके खर्च चलाते । इसी लाचारी के कारण पुत्र से अधिक मिल भी नहीं पाते थे । इधर सरोज की बीमारी गम्भीर रूप ले चुकी थी । तपेदिक के कारण बाँया फेफड़ा छलनी हो गया था और वैद्यों नें कहा - उसे गंगा की धारा में रखना चाहिए । .......... निराला को पैसों की सख्त जरूरत थी । ....... पर मिल नहीं सका । और सरोज गुजर गई निराला की आँखों से एक बूँद भी आँसू न गिरा । निराला का जीवन यथार्थ के धरातल पर कभी भी सुखमय नहीं रहा । परिवार के अधिकांश सदस्य असमय ही उनका साथ छोड़ गये । मित्रगण भी एक एक कर साथ छोड़ने लगे । आर्थिक स्थिति से तो वे सदैव जूझते रहे । उनका हृदय वर का बना हुआ था । सन्‌ १९१६ से सन्‌ १९३५ तक उनके पारिवारिक सामाजिक साहित्यिक और आर्थिक जीवन में ऐसे - ऐसे तूफान उठे कि दूसरा होता तो कंधे डाल देता मगर निरालाजी पर्वत की भाँति अपने लक्ष्य पर डटे रहे । इस साधना के परिणाम ने निराला के साहित्यिक औदात्य को मौलिक आयाम दिलाते हुये सरोज स्मृति राम की शक्ति पूजा तुलसीदास कुल्ली भाट बिल्लेसुर बकरिहा प्रबन्ध - प्रतिमा आदि उत्कृष्ट कृतियों का दिग्दर्शन कराया । निराला एक यायावरी जीवन जीते हुये कभी कलकत्ता कभी लखनऊ कभी काशी में अपने विशाल अनुभव को व्यापक साहित्यिक धरातल प्रदान करते रहे । सन्‌ १९४२ ई० के बाद उन्होंने प्रयाग के दारागंज मुहल्ले को अपना स्थायी निवास स्थान बनाया । प्रयाग आने के बाद उनकी अवद्शा और अधिक खराब हो गई । राम विलास शर्मा नें इस समय को नरक - यात्रा का नाम दिया । लम्बी बीमारी और जर्जर अर्थ व्यवस्था नें इस महाकवि की महाप्राणता को भी तोड़ कर रख दिया । वास्तव में निराला ने सन्‌ ४३ से लेकर सन्‌ श् निराला की साहित्य साधना - राम विलास शर्मा पृ० २६३ २... वही पृ० २९३ कक ३....... निराला साहित्य सन्दर्भ - हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग - श्री राजेन्द सिंह गौड़ पृ० ३०




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