कृष्ण वाक्य | Krishn Vakya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ कै. >अहिंसी सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रिय निम्नह। । <हिंत 'खामासिक धर्म चातुर्व्ष्य5प्रचीन्मनुः ॥ ४ ॥ ही यम या मठु० आप १०॥ ६३ ॥ सत्यमस्तेषयमक्रोघो हीः शौच धीधतिदेभः । संयतेन्द्रियता विद्या घर्मः से उदाह्ृतः॥ ५ ॥ इन सब गछोका में “शोच'” शप्द ) याज्नवल्क्य अ० १। ११२ आया है| इसी प्रकार दक्ष नी महारान कहते हैं फ्ि वुद्धिमानों ने कहा है फि शौच को करना और अश्ञोच को त्यागना चाहिये। यथा--- उक्त शौचमशाच च काय्प त्याज्य सनीषिभि। ॥ ६ ॥ दक्ष अ० ५ 1 २ और शौच ( पवित्रता ) में सदेव यत्त करना चाहिये क्योंकि द्विमपने का कारण शौच ( शुद्धता ) ही कहा है। शोच ( निर्मेठता ) के आचरण से नो शान है उस के सव कमे निप्फछ हैं। यथा--- आधे थज्नः सदा कार्य्चः शौच सूलो विज: सखला । शौनाचारविहीनस्थ समता निष्कला३ क्रिया; ॥७॥ न दूच अ० ५1२ दक्ष जी महाराज कहते हैं कि शौच दो प्रकार का है एक बाहर फा और दूसरा! भीतर का, बाहरी मशी और गछ से और भीतरी (अन्त: शोच मन की शुद्धि से होता है। यथा-+- ' - शौच च दिकिध प्रोत्त पाश्माच्यम्तरं तथा 1 सुज्जलास्यां स्प्॒त बाहं भाव शुद्धि रथांतरे ॥ष्ण दक्ष अ० ५। ह > कस ी्‌ ४ के ५... ईंसी प्रकार एक ओर महात्मा ने कहा है कि पवित्रता दो प्रकार की होती ९1( ३ ) वाह अथीद शरीर को शुद्ध रखना। खच्छ जह से स्नान करना।




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