ध्वन्यालोक: | Dhwanyaalok
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
167
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ ] [ सटीकलोचनोपेतथ्बन्यालोके
लोचन
छुरेम्यः , संघटनाश्रितं तु शब्दगुणेभ्यः | एवमर्थानां चारुत्व॑ स्वरूपमात्रनिष्ठसु-
प्तादिभ्य; | संघटनापर्यवसितं त्वथंगुशेभ्य इति न गुणालझ्ार्यतिरिक्तो ध्वनिः
कश्चित् । संघटनाधर्मा इति । शब्दार्थयोरिति शेष: । यद्शुणालक्लारव्यतिरिक्त
तच्चारुत्वकारि न भवति . नित्यानित्यदोषा असाधुदुःअवादय इव । चारुत्वहैतुश्च
ध्वनिः , तन्न तद्व्यतिर्क्ति इति व्यतिरेकी हेतु ननु इत्तयों
रीतयश्च यथा गुणालझार्यतिरिक्ताश्चास्त्वहेतवश्च , तथा ध्वनिरपि तद्व्यतिरिक्तश्च
रश्मि
इन्हीं विकल्पों को वृत्तिकार क्रम से कहते हैं--- शब्दा्थशरीर तावत् इत्यादि ।
तावत्! शब्द कहकर यह प्रदर्शित किया है कि इस (काव्य-लक्षण) में (ध्वनि के वादी
अथवा प्रतिवादी) किसी को भी आपत्ति नहीं है | पर (काव्य के शरीर) शब्द और अथ
तो ध्वनि? है नहीं क्योंकि केवल (दूसरा) नाम रखने से लाभ ही क्या ! यदि आप यह
कहें कि जिससे शब्द और अर्थ में चार्ता आए वह ध्वनि है, तो, (यह जानिये कि)
चारुता दो प्रकार की होती है--(१) (शब्द और अर्थ की) केवल स्वरूपगत, और (२)
(उनकी) संघटनागत । शब्दों का स्वरूपगत--सौन्दर्य शब्दालझ्ारों से होता है, तथा
संघटनागत-सौन्दर्य शब्दगुणों से | इसी प्रकार अर्थों का स्वरूपगत चारुत्व उपमादि
(अर्थालड्वारों) से होता है तथा संघटनागत अर्थगुणों से | इस प्रकार (यदि ध्वनि शब्द
ओर अर्थ का चारुत्वहेतु है तो) गुण और अलझ्जार से मिन्न ध्वनि! नामक कोई वस्तु
नहीं है | बृत्ति में संघटनाधर्मा: पद का .सम्बन्ध है शब्द और अर्थ के साथ अर्थात्
शब्द और अर्थ के संघटनाधर्म । (न्यायशास्त्र की भाषा में इसको इस प्रकार कहेंगे)
“जो गुण और अलझ्लार से भिन्न होता है वह चारुता का हेठ नहीं होता--जैसे,
व्याकरणु-नियमों से रहित असाधु आदि. नित्य दोष और श्रुतिदुष्ट आदि अनित्य
दोष । और चूँकि ध्वनि चारुता का हेत है, अतः वह मुणालझ्लार से विभिन्न नहीं
है?-.. इस प्रकार यह केवल व्यतिरेकी हेतु होगा ।
[ अर्थात् इसके अन्वय रूप का कोई उदाहरण या सपक्ष है ही नहीं जैसे
यच्चारुत्वहेठ॒त्वं तद्गुणालझ्लारत्वम्। किन्तु व्यतिरेक रूप का उदाहरण दिया जा
सकता है जैसे यज्न गुणालझ्लारत्वं॑ तन्न चारुत्वहेतुत्व॑ --यथा काव्यदोषा: तथा चाय्य॑
ध्वनि: । ]
अब शड्जा यह है कि “जैसे वृत्तियाँ और रीतियाँ गुणालड्लार से भिन्न होती
हुई भी चारुत्वहेतु हैं, उसी प्रकार ध्वनि भी मुणालझ्लार से मिन्न होगा और चास्ता
का हेतु होगा, अतः यह ( केवल ) व्यतिरेकी हेत व्यापित्वासिद्ध ( हेत्वाभास ) हो
जायगा ।”--इस प्रकार की शड्ला को मन में कल्पित कर समाधान करते हुए-से
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