ध्वन्यालोक | Dhwanyaalok

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Dhwanyaalok by रामसागर त्रिपाठी - Ramsagar Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब्रथम उद्योठः हि 8 1 बन दान दमन नम लोचनम्‌ आयासने तत्सब्रिधौ! चन्द्रस्य विच्छायत्वप्रतीतिहंचस्वप्रदोतिइ्व ध्वन्यते । शआायासकारिव चघ नखानां सुप्रसिदम। भरहरिनखानां तच्च छोकोच्रेण रूपेण भ्रतिपादितम्‌॥ किन्न तदीयां स्वच्छतां कुटिलिमा्ं चायलोक््य बालचन्द्रः स्वामनि खेंदमनुमचति सुल्येषपि स्वच्ठकुटिलाकारयोगेड्मी अपनार्तिनिवारण- कुशक्ञाम न स्वहांमति ब्यतिरेकाल्कारोइपि घ्वनित+ किश्चाह पूर्वेमेक एंदासाघा- रगबेशचहधाफारयोगाव्‌ समस्तजनामिल्पणीेयतामामनसमवमस्‌ , अय सुनरेद- विधा नखाः, दशा वालूचन्द्राकारा: सन्‍्तापार्तिच्छेदनक्शलाइचेति ठानेद ज्ोको यालेन्ट्रबहुमानेन पश्यति, न तु मामियाककयन्वालेन्दुरविरतायासमनुमदती- देश्युस्परेक्षापद्दु तिप्वनिरपि, एवं वस्वलद्वारस्समेदेन त्रिधा ध्वनिरत्र इलोकेप़स्सद्‌- गुरमिस्यस्याता ४ बी पवीति तथा अद्वृइल्वप्रतीति ध्वनित दोतो है और ना दूनों का आयासकारित मुद्तत्तिद है, और बढ़ आयमझारिल मरदरि के मायुर्ता का विशेष रूप में प्रठिद्रादित किया गया है; और भी उनकी स्वच्छता और इुटिश्ता को देखइर वाठुचस्द्र अरनी आगा में खेद का अनुभव बरठा ह। स्वच्छ दया कुटिछ आह” के योग के समान दोने पर भी ये नज इप्धाग नें के दुःख निवरण में दुश5 हैं, मैं तो नहीं हूँ? यद स्यठिरेकऊुद्दार मो यहाँ पर खनित छित् गंदा है। झौर मी 'मैं पहले अरेला दो असाशरण निरमेजता ठया दरय को दिए झासार फे योग से समभो सेयों को अभिझषाश को येग्दवा का पात था, फिर झाज ये इम प्रक॒ए के ३ लबस्द्राइार ठया हन्ततों के अपिजिच्टेदन में डुश्छ दस नप्यून हैं, श्मलिये एड ही छोक दरेनेु से अधिक सम्पान ये द्वारा देखेरा, झुसे नदों! यइ सनझते हुये ग'ऊचन्द्र निरन्‍्ठर मानों आयास का अनुभव करता है यह उंश्मेशा और अप ति घनि भो होतो है । श्म धार, बस्तु, अल्शार और रस के भेद से त'न घकार को ध्वान को ब्यास्या शस इश्क में हमारे पुरुजनों के दारा की गई है । ] साराबंती अछिंद एैं। और वद मंगवात्‌ के नसें में विद्येष रूप से दिखाया ग्या हैं। दूसरी बात यड है दि नये को स्तच्छता ठया कुटिछता देखुए इ्लचन्द्र अपने अन्दर खेइ का अदुमव करता है $ सच्छता तण डुटिसिठा ठो दोनों में समान हैं; परन्तु मगशान्‌ के नख दारणागतों की आदि के इन्तन में समये हैं, गुस में यई शक्ति रिय मान नहों है. ।! इस शद्धार ब्यविरेक'स्द्ार अन्त होठा है। इसके अविरिर चन्द्रया समसता है कि 'अप्ो ढक भरतो असापारण निर्म- छल ठयो हृश्यप्रादो भाशति के योग से समस्त भ्यक्यों दी झमिझाश का पात्र मैं दो था अब डो एस शद्ार के बचन्‍्द्रारुर १७ नाखून विधमल हैं और ये सन्‍्ताप को नथ्ट करने में मद बुए'ठ है ( बब फि मैं विद गिदा छो सन्दार देने बश्छा हूँ ॥ ) अवरव अब ठो छोक इन्‍्दीं को बसे के दोम्द कद्मान्‌ सम्म'न फे साप देखेगा, झुते कोई नदी मानेगा रनों दद समझते हुये




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