तुलसी की काव्य - कला | Tulasi Ki Kavya - Kala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
400
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ४
के बस्पता तथा भाज प्रमुख तत्थ कह जा सकते हैं। झोर उसके प्रजाद में कोई भी
हुबिता बबिता महीं कहसा सकती । किग्तु कबस इस्ही दो दत््डों के प्राथार पर किसी
साहित्पिक रचमा को कबिठा की एंज्ञा प्रदात मही को चादेगी | जिस रचता में उप
मुक्त धरममी तत्वों का समाषस होता है। बही रचता कब्िठा की कोटि में पा उकसन्नी है ।
कंबिता से कक््पता पा मा के साथ घाथ संपोतास््मकठा मी होनी चाहिपे। प्रत
भाग सद्यां बक्ष्पा का फ़्मगद़ बशत ही दुछरे धम्दों में कदिता गहसा सकती है |
किता में उपयु क्त तत्वों का सपादंछ कशारमक दविद्पता छा देता है। प्रागे हम
कविता प्लौर करा के सम्बन्ध का बिश्सेपण करेंगे।
कसा का स्वरुप-
कला के स््वढडुप के सम्मस्ध में पारतोय डिढानों प्रौर पराएबार्य बिद्वानों में
धोड़ा सतमेद है) दोलों के कला सम्दरणी हृष्टिको्ों को समझते के हेतु यह घावए्पक
है कि हम उनके मर्तों वी यहाँ प्रशम-प्रसब समीक्षा करें ।
भारतोय दिट्टार्तों का कला-परक्ष हृष्टिकोण--
संरकत छाहिए्य में शत का वियाडुत दो भागों में किया पया है ।
१--विद्या : तबा
२--रपविदा
दिचा के प्रन्ठर्यत काध्य को रक््लापया है। रुसायें उपबिद्ा के प्रग्तर्मत रपशो
गई हैं। संरदृत के विद्वाम साहित्प भ्रदवा काम्य को बस्ता से मिप्त समसते थे ।६
मह्दों पर विच्षारणोय यह है कि प्रांद्रीन बिठातों ने काप्य प्रोर कका के बीच
महू बिमाजन रेश्षा क्यां क्षीबी। बास्तव में बोसों में कृपा भ्रस्तर है इस बात का स्पष्ट
करते के हेतु हमें दृम्टौ के कप्ता सम्दम्शी मत पर विचार करमा होगा 13 उनझ मता
मुसार भृर्प गीत, कशा काम प्रौर प्रभें के प्राश्रित है। इस प्रकार उस्होंगे कल) पे
साहिए्प का स्पष्ट भेद स्थीकार किया है। उसको हृष्टि में कप्ता कामार्ष संप्रय [काम
में सहायक] इोती है। दिम्तु साहित्य कोरा ढामायें संश्रया' वदिसी भी प्रकार नहीं
झागा झा सकता) साहित्य या छाग्प के सम्दस्ध ऐ. इमारे महा बहुत ऊँषो बारसायें
पी । उसे हमारे महाँ के मधीयो प्तारमा को कसा मालते बे | क्षेम राज ते कछा को
बरतु क्रो संबारते बाली बडा (४ भारतीय दिद्वात झुका को केबल साहित्य से ही
१ पें> राजऐश्र-काप्यमीमसाय ७०
२ घाहिए्प उपीत कछ्ता बिहीव छाज्षात् पशु पुष्छ दिपाय होगे 3
जाभदृदृरि
+-रण्डी शाध्यादर्ण पृ ६७
३ गृत्यवीत प्रभूतप बुला कामा्ं संध्या
४ कश्षमति स्व॒रर्प भावेशमति बस्यूमिया।
छ्ेपराज---शिवसभ बिमशिसपी-..७- ७०
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