जापान-चरित्र | Japan Charitra

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Japan Charitra by आर. ए. अग्रवाल - R. A. Agrawal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ऐेविहातििक दुत्तान्त श्र ५ जन्‍म रक जज जनरर न अतरजी फफीनीरीजजन्‍जभ पर | शुआ करती थी। प्ज्ञागण आपको ,खाक्षात-ईश्वर समझा हर 1 है। ह आपसे भय सौर भक्ति करती थी। इन्द्ीीफी श्राधाओ फो जापानीलोग 'शिम्तो-धर्म ' कहते है। सरये-पूजा)राज भक्ति ओर रंबदेश प्रीति इस घम्मेका घूल मन्त्र है। प्रजा मात्र दी सम्राए आर स्पदेशके निर्मित सागर-सलिलके समान अकातर अर्थ ओर शीणित व्यय फरः देतों हैं। , 3 3. जीमुतमनु मिकाडों के बादस जापानका राज़ सम्मान अति अधिक पराश्माण्त से वृद्धि पाता रहा। उस खसमये जन-साधारण ' सम्राट को देवता खमककर उनका'शर्रर परम पवित्र कान पृज्ञा करती 'थी। राज्ा झस समय झात्तिफा स्पर्श ' नहीं करत थे। फ्लिसी स्थान्म जांते। समय घादयकों के कन्ये पर तामज्ञाम “में ,विराजमान' दो परदरकी झोटम दो अाते जाते थ। सप्नराद के अख ओर केश पाए भयस कोई फाद छाद नहीं; सकता था। उद्नादरऊ लिये प्रतिदिन नूतन पात्रों में भोजन बनता , नोजनके' बाद पदसव देत्तन सझुठम फेक दिये जाते थे।किसी को छुने सऊ को पद नहीं दिये जाते थे। जिसदिव सम्राट नूतन स्व पर्नोस भोजन करते थे खथ खोनेझे वतन गंताजझर चांतुके डुकडे बना एलिये जाते। सप्राद् छी तवियत भी दुऊ अलीजल दोने पए शिल्ते! धर्मेमन्दिर के पुरेहित उएयाजी रण, मिझाल सनध्या और परमात्मा से पध फ्रया करते ,ज। | सम्राट द्ारद जुन्दरय स्लिया तक दे 1 न्क 8 है




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