परमेतकमल मार्तण्ड | Prameyakamal Martand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२० प्रमेयकमलमात्तेण्ड जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण, यह है. कि-दरिभद्वसूरिने अपने घड्दशनसमुच्चय (छो० २०) में न्यायमंदरी (विजयानगरे से० पू० १९९ ) के--- “गस्मीरगर्जितारस्सनिर्भिन्नगिरिग दराः । रोलम्बगवल्ब्यालतमालमलिनत्विपः ॥ त्वज्ञ्तडिल्लतासक्ृपिदशड़ोत्तुड़विग्नहाः । चर्टि व्यभिचरन्तीह नेवंप्रायाः पयोमुचः ॥ 7 इन दो श्छोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है। प्रसिद्ध इतिकत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने 'जेन साहिल्यसंशोधक! (भाग १ अंक १) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसूरिकी कुबछयमाला कथामें हरिभद्रका गुरुखपसे' उछ्ेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ३० ७०० से ७७० तक निधारित किया हैं । कुबल्यमाला कथाकी समाप्ति शक ७०० (३० ७७८ 3 में हुई थी । मेरा इस विषयमें इतना संशोधन है कि उस समयकी आउदुःर्थिति देखते हुए हरि- भद्रकी निधोरित आयु खल्प मालूम होती है । उनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक भाननेसे वे न्याव्रम॑जरीकों देख सकेंगे। हरिभद्र जैसे' सेकड़ों प्रकर- णोंके रचयिता विद्वान॒के लिए १०० वर्ष जीना अखाभाबिक नहीं हो सकता । अतः ६० ७१० से 2१० तक समयवाले हरिभद्वसरिके द्वारा न्यायमंजरीके शछोकोंका अपने अ्न्धर्में शामिल किया जाना जयन्तके ७६० से ८४० है० तकके समयका प्रबल साधकप्रमाण है । आ० ग्रभाचन्द्रने वात्सायनभ्ञाष्य एवं न्‍्यायवार्तिककी अपेक्षा जयमन्तकी न्याय- मझरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीरून एवं समुचित उपथोग किया है । षोडशपदार्थके निरूपणमें जयन्तकी न्यायमञरीके ही शब्द अपनी आशम्ना क्‍ दिखाते हैं । प्रभावन्द्रको न्यायमंजरी खभ्यस्त थी । वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दोंको “तथा चाह भाष्यकारः? लिखकर उद्धृत करते हैं । भूतचेतन्यवादके पूर्वपक्षमें न्‍्यायमजरी में 'अपि च' करके, उद्धृत की गईं १७ कारिकाएँ न्याय- कुमुंदचन्द्रमें भी ज्योंकी दों उद्धत की गई हैं । जयस्तके कारकसआल्यका सर्वेप्रथम खण्डन प्रभाचन्धने ही किया है । न्यावमत्रीकी निशलिशित सीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्में उद्धुत की गई हैं । (६ न्यायकुसुद० प० ३३६ ) “ज्ञातं सम्यगसम्यस्था वन्मोक्षाय भवाथ वा ।.. तट्मेयमिहासीईट न प्रमाणार्थमात्रकम्‌ ॥” [ न्यायसं० पृ० ४४७ ] ( न्यायकुमुद्‌० प्रृ० ४५१ ) “भूयोडवयवसमान्ययोगो यथ्पि मन्यते । साहइय॑ तस्त्र तु ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि ॥” [ ज्यायमं० पृ० १४६ ] “| न्यायकुमुद० प० ५११ ) “नन्वस्लेव गहद्वारवर्तिन: संगतिग्रहः । भावेनाभावपिद्धों तु कश्मेतद्धविष्यति ॥” [ न्यायमं० पृ० ३८ ]




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