एक जिंदगी बनजारा | Ek Zindagi Banjara
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
134
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)की । बचपन की वे सहेलियाँ, माँ ! तुम्हें याद है कम्मों
कितनी गोरी थी ? उसके गोरे-गोरे मुखड़े पर जब में हाथ
फेरकर कहती कि कम्मो, तेरे गाल तो ऐसे हैं जैसे मक्खन
के गोले, तो वह मुझे चप्त लगाकर कहती थी कि और
- तेरे ऐसे जैसे'**(लजा जाती है) ।
माँ : जैसे गुलाब के फूल । है न ! मेरी लाड़ली वेदी ऐसी ही तो
है। (हसतो है) भरे मनी ! थे दिन भी क्या दिन थे ? तू
छोटी थी। जब तेरा बापू तुके झपने कन्धे पर चढ़ाकर
घूमते निकलता था, तो कोई भी तुझे लड़की नहीं समभक्ता
था। सब कहते थे लड़के को घुमाने जा रहे हो ? तो वे
कहते--मनी मेरा बेटा ही तो है। सच तुर्के वे कितना
प्यार करते थे !
बायों श्रोर के द्वार पर थपथपाहट सुनाई देती है ।
मनी : कोई यात्री मालूम होता है, माँ !
माँ.: हाँ और वया ? तू बैठ, में जाती हूं ।
जाती है । बाहर से कुछ श्रावार्जं उभरती हैं ।
स्त्री-स्वर : बड़ा सीरियस केस था । थोड़ी देर बाद पहुंचते तो*'*
पुरुष-स्वर ; उसका बचना कठिन था। श्रव केस कण्ट्रोल में आ गया
है। भाग्य से जो इंजेक्शन ज़रूरी थे, मेरे बकस में निकल
आये ।
स्त्री-स्वर : जिसकी ज़िन्दगी होती है, उसे कोई नहीं मार सकता*** ।
पुरुप-स्वर : यह तो है ही (थोड़ा रककर)'*'जब-जब में इस क्रस्थे में
आता हूँ तो न जानते**'“ये क़स्बा'*ये नदी'*'ये गाँव, जाते
कैंसा-कंसा लगने लगता है''* ।
दरवाजा खुलने पर दोनों घन्दर शा जाते हैं ।
पुरुष : हमें रात भर के लिए स्थान चाहिये। श्रापकी सराय
के अतिरिक्त यहाँ झौर कोई स्थान है ही नहीं रुकने को 1
माँ : झ्राइये मेरे साथ । (मनी से) मती**'दो नम्बर की कोठरी
रे खाली हो गई है, जरा दिखा दे, बेटी ! (भागन्तुक पुरुष से) हाँ
ड * ' बाबू जी ! २४ घण्टों के १० रुपये होते हैं। साने-पीने का
इन्तजाम हमारे यहाँ नहीं है। केवल चाय चाहेंगे तो मिल
सकेगी 1
पुरुष : “/*“नहीं चाय नहीं चाहिये झोर हमें चौबीस घण्टे कहाँ
रुकना है, दिन निकला और हम गये***
स्त्री : बढ तो प्रचानह अंधेरो रात पड़ भपी, वरना हम रकते थोड़े
पेपेरा-*भरंधेरा** “भौर-** भ्रधेरा १६
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