एक जिंदगी बनजारा | Ek Zindagi Banjara

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Ek Zindagi Banjara by शैल रस्तोगी - Shail Rastogi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की । बचपन की वे सहेलियाँ, माँ ! तुम्हें याद है कम्मों कितनी गोरी थी ? उसके गोरे-गोरे मुखड़े पर जब में हाथ फेरकर कहती कि कम्मो, तेरे गाल तो ऐसे हैं जैसे मक्खन के गोले, तो वह मुझे चप्त लगाकर कहती थी कि और - तेरे ऐसे जैसे'**(लजा जाती है) । माँ : जैसे गुलाब के फूल । है न ! मेरी लाड़ली वेदी ऐसी ही तो है। (हसतो है) भरे मनी ! थे दिन भी क्‍या दिन थे ? तू छोटी थी। जब तेरा बापू तुके झपने कन्धे पर चढ़ाकर घूमते निकलता था, तो कोई भी तुझे लड़की नहीं समभक्ता था। सब कहते थे लड़के को घुमाने जा रहे हो ? तो वे कहते--मनी मेरा बेटा ही तो है। सच तुर्के वे कितना प्यार करते थे ! बायों श्रोर के द्वार पर थपथपाहट सुनाई देती है । मनी : कोई यात्री मालूम होता है, माँ ! माँ.: हाँ और वया ? तू बैठ, में जाती हूं । जाती है । बाहर से कुछ श्रावार्जं उभरती हैं । स्त्री-स्वर : बड़ा सीरियस केस था । थोड़ी देर बाद पहुंचते तो*'* पुरुष-स्वर ; उसका बचना कठिन था। श्रव केस कण्ट्रोल में आ गया है। भाग्य से जो इंजेक्शन ज़रूरी थे, मेरे बकस में निकल आये । स्त्री-स्वर : जिसकी ज़िन्दगी होती है, उसे कोई नहीं मार सकता*** । पुरुप-स्वर : यह तो है ही (थोड़ा रककर)'*'जब-जब में इस क्रस्थे में आता हूँ तो न जानते**'“ये क़स्बा'*ये नदी'*'ये गाँव, जाते कैंसा-कंसा लगने लगता है''* । दरवाजा खुलने पर दोनों घन्दर शा जाते हैं । पुरुष : हमें रात भर के लिए स्थान चाहिये। श्रापकी सराय के अतिरिक्त यहाँ झौर कोई स्थान है ही नहीं रुकने को 1 माँ : झ्राइये मेरे साथ । (मनी से) मती**'दो नम्बर की कोठरी रे खाली हो गई है, जरा दिखा दे, बेटी ! (भागन्तुक पुरुष से) हाँ ड * ' बाबू जी ! २४ घण्टों के १० रुपये होते हैं। साने-पीने का इन्तजाम हमारे यहाँ नहीं है। केवल चाय चाहेंगे तो मिल सकेगी 1 पुरुष : “/*“नहीं चाय नहीं चाहिये झोर हमें चौबीस घण्टे कहाँ रुकना है, दिन निकला और हम गये*** स्त्री : बढ तो प्रचानह अंधेरो रात पड़ भपी, वरना हम रकते थोड़े पेपेरा-*भरंधेरा** “भौर-** भ्रधेरा १६




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