भारतीय उपन्यासों में वर्णनकला का तुलनात्मक मूल्याकन | Bhartiya Upanyason Mein Varnankala Ka Tulnatmak Mulyakan

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Bhartiya Upanyason Mein Varnankala Ka Tulnatmak Mulyakan by इन्दिरा - Indira

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य म वणनात्मकता वा स्वरूप एवं भूल्य [ ६ 'वष्य' शब्द महाकाव्यों में काव्यशास्त्रीय पद्धति के अनुसार वणन किये जाने वलि अवसरा के लिये प्रयुक्त हाता था। प्रवाघा के सम्ब'प में भी विशेष उल्लेख होने के कारण ऐसा ध्वतित होता है कि गद्यात्मक क्‍्याआ के लिये भी निर्दिष्ट अवसरां के समावेश की अपेक्षा वी जाती थी। तथा वणितव्य शब्ल प्रशस्ति अथवा स्तुति के अधिकारी देवी देवता जौर धामिक तीथस्थातों जादि के उपारयान आदि के लिये प्रयुक्त होता था। हलायुध कोशकार' ने भी 'वणन शब्द की व्यास्या के साथ ही साथ 'वणना' शब्द की भी पृथक ध्यास्या दी है। वणन शब्द वी व्यास्या तिम्न माति है-- बणतम्‌--बली ० (वण स्तुतौ विस्तारे रजनादौ --ल्‍्यूट) वणना, स्तवनम्‌ यधा+-- इत्यमू तिशम्य दसधोषसुत. स्वपीठात, उत्थाय. कृष्ण. गुर्वणन जातमयु । उत्किप्य बाहुसिदमाह. सदस्यमर्षी, सश्राववन भगवते परुषायभीत ॥ इति भागवत १०/७४|३० विस्तरम्‌, शुक्‍्लादिवणयोजनम्‌, दीपनम्‌ ।' 'शाद-कल्प्रुम' के अत्रिक्त हलायुधकोश की परिमापा मे 'वणन” शब्द के पर्याया मं, वणना का भी स्रभावेश हुआ है ) कितु “वणना' शब्द की पृथक व्याख्या भी उसने दी है जिससे जान पडता है कि समयान्तर मे 'वणना' शब्द का अथ वणन से किचित भिन भावाग में हाने लगा था। जहाँ तक कि वणन शद की व्युत्पत्ति एव व्याख्या का प्रश्न है, हलायुधवाश एव 'शब्द-कल्पदुम भें काई विशेष अन्तर नहीं जान पडता । बिन्तु उदाहरणद्वारा 'हलायुघ- काश कार ने यह इंगित क्या है कि सात्र प्रशता क ही अथ में हो नहीं वरन्‌ उससे इतर सविस्तार कथन के लिये भी इस शब्द का प्रयाग होता था । अब वणना' शब्ट की व्याख्या भी प्रेक्षपीय है-- वणना--स्त्री ० (वण--णिच +-युच--ठापू) गुणक्थनम्‌, इडा, स्तवः स्सोन्रस्‌ स्तुति , नुति , श्लाघा, प्रशशा अथवाद--यथा-- बिदग्धा अपि वष्य ते विटवणनया स्त्रिय ।इति क्थासरित सागर! ३२१६६ उक्त परिमाषा से यह प्रकट है कि भुणकयन स्तुति, प्रशसा, श्लाघा आदि के १ हलापुथ-कोश (अभिधान रत्नमाला) स० जयशकर जोशी (प्र० सरस्वतां मवन वाराणसी इते-सरस्वती मवन प्रकाशन भाला १२ प्रकाशन ब्यूरो सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित । प्रथम प्रकाशन २०१४ बवि०, पृष्ठ ५६१ २ हलापुप-कोश (अभिधान रत्नमाला), पृष्ठ ५६१ ज




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