श्री प्रवचनसार | Shri Pravachanasar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
22 MB
कुल पष्ठ :
392
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विषय
मुक्त आत्माके खुखकी ग्रसिद्धिके लिये, शरीर
सुखका साधन है, इसका खडन करते हैं
आत्ता स्त्रय ही सुखपरिणामक्री शक्तिवराला दे
टसलिये विपर्योकी अ्र्किचित्करता
आरा माका सुख्खभावत्र दृशत देकर दृढ़ करते
हुवे आनन्द-अधिकार प्रगे करते हैं
-- शुसमपरिणास अधिकौर --
इन्द्रियसुवस्परूप सम्बन्धी विचारको लेकर,
उसके साधनका स्वरूप
इन्द्रियछुख की शुभोपयोगक्रे साथ्यक्रे रपमे
कहते है
इन्द्रियमुबको दु खरूपमे सिद्ध करते है
व्ियसुखके साधनमूत पुण्यको उत्पन्न
करनेत्राले शुभोपयोगकी दू'खके सावन भूत
वापको उत्पन्न करनेताले आशुमोपयोगमे
अ्विशेषता प्रगट करते हैं... ,
पुण्य ढू,वक्के ब्रीजके कारण है; इसमप्रकार
न्यायमे प्रगट करते है
पुणयजन्य इन्द्रियसु व मो अने कप्रकारे दु'खरूप
प्रकाशित करते है
पुणप्र ओर पापकी श्रविशेषनाका निश्चय करते
हुए ( इस विपयक्ता ) उपसहार करते है
|
श्
१/१॥
शुभ और अशुभ उपयोगत्री अविशेपता अब-
थारित कं'के समस्त गशगद्वेषक्रे द्वेतकों दर
करते हुए, अशेष दु खका क्षय करनेका
मनमें दृढ़ निश्चय करने बाला शुद्धो पयोगमि
निवास करता है
कक २ ९६) ००.
गाथा |
& ट
विषप
मोहादिकि उन्मूलनके प्रति सर्वारिम्भ प्रवेक
कटिबद्ध होता है
मुझे मोहकी सेनाक्ों केसे जीतना चाहिये!
यह उपाय सोचता है
| | मेने चिंतामणि-रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि
प्रमाद चोर विद्यमान है, यह विचार कर
दर्द जागृत रहता है
पूर्रक्त गाथाओंम वर्णित यही एक, भगवन्तोके
|. द्वारा स्वय अनुभव करके प्रगठ किया हुआ
1 श्रेयसका पारमार्थिकपन्न्थ है-समप्रकार
|, मतिझ्नो निश्चित करते है
। शुद्धात्माके शत्रु-मोहका स्त्रभाव और उसके
2? । प्रक्कारोंको व्यक्त करते हैं
७9२ हे
की +जध ७-सक “मीन. .3 अमन--.. न्कम््क
तीनों प्रकारक्रे मोहको अनिष्ट कार्यका कारण
कहकर उसका क्षय करने को कहते है
रागद्रेपमोहकी इन चिन्दोंके द्वारा पहिचान
कर उत्न्न होते ही नष्ट कर देना योग्य है
हक ! मोह क्षय करनेका दूसरा उपाय विचारते हैं
। जिनेन्द्रके शब्द ब्रह्ममें श्रथोकी व्यवस्था किस
७४9४
|
95
। मोहक्षयक्रे उपायभूत जिनेश्वरके उपदेश भी प्राप्ति
ध््
|
।
(ली
प्रकार है सो विचारते हैं
होनेगर भी पुछुषार्थ अर्थक्रिपाकारी है
स्त-परक्े वित्रेककी सिद्धिसे ही मोहका क्षय हो
७७ ४ सकता है इसलिये स्व-परक्रे विभागकी सिद्धि
जप
के लिये प्रयत्न करते हैं
सबग्रकारसे स्त्रपरके वित्रेककी सिद्धि आगमसे
करने योग्य है, इसप्रक्ार उपसंहार करते हैं
गाथा
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जिनेद्रोक्त अथोत्रे श्रद्धान बिना धर्मलाभ नहीं होता & १
आचार्य भगवान साम्यका धर्मत्न सिद्ध करके
मे स्वय साक्षात धर्म ही हु! ऐसे भावमें
निशचल रहते हैं
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