न्यायकुमुदचन्द्र भाग - 1 | Nyayakumudachandra Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
117 MB
कुल पष्ठ :
592
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्वावना ्
सिद्धसिन ने प्रमाण और नय का निरूपण करने के छिये हो न्यायावतार नाम का स्वतंत्र प्रक-
रण रचा । जैनवाड्मय मे न््यौय का अवतार करनेवाले श्री सिड्धसेन ही है।
दिडनाग को बौद्धदर्शन का पिता कहा जाता है। उनका प्रमाणसमुच्चय सध्यकाढीन
भारतीय न्यायशासत्र का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है । दिनाग के अन्धां का अवलम्बन लेकर
ही धमकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक प्रमाणविनिश्चय आदि प्रन्थरत्नो की रचना की थी। सिद्धसेन,
द्डिनाग और घ्मकीर्ति के प्रमाणविषयक्र प्रकरणो ने छघीयखय की रचना में योगदान किया
हो, ऐसा प्रतीत होता है। मध्यकाडीन भारतीयन्याय के निर्माता जेन और बौद्ध प्रन्थकारो
के प्रमाणविषयक इन प्रकरणो के सम्बन्ध मे डा० विद्यामूषण ने लिखा है--
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अथीत्--ये प्रकरण अपनी सुगमता और यथार्यता के लिये उल्लेखनीय है। साथ ही साथ
विभिन्न विषयों पर ऋरमबद्धरूप मे ये साक्षात् प्रकाश डालते है। इनमे दत्त परिभाषाएँ स्पष्ट
और यथाथ होती है ।
रचनाशैली--प्रन्थकार ने अपने सभी प्रकरणों मे प्रायः एक ही शैढी का अनुसरण किया
है। प्रारम्भ मे वे मंगछाचरण करते है, उसके बाद एक पद के द्वारा कण्ठकशुद्धि आदि करके
प्रकृत विषय का प्रतिपादन प्रारम्भ करते है। प्रकृत अ्रन्थ, न््यायविनिश्वय तथा सिद्धिविनिश्चय
मे यही क्रम अपनाया गया है। वे अपने प्रकरणो को केवल कारिकाओ में ही रचकर समाप्त
नही करते, किन्तु उन पर बृत्ति भी रचते है। अब तक उनका एक भी ग्रन्थ ऐसा नहीं
मिलछा, जिसपर उन्होने बृत्ति न रची हो। चत्ति रचने का उनका उद्देश्य केवछ कारिकाओ का
व्याख्यान करना ही नहीं होता किन्तु उसके द्वारा वे कारिका मे अतिपादित विषय से सम्बन्ध
रखनेवाले अन्य विषयो का विवेचन और आलोचन भी करते है। किसी किसी कारिका की
वृत्ति तों कारिका के आशय पर अकाश न डालकर नूतन बात का ही चित्रण करती है ।
अकलंकदेव की अन्य रचनाओ की अपेक्षा छघीयस्सजय और उसकी विबव्ृति कुछ सुगम प्रतीति
होती है, न तो न््यायविनिश्चय की कारिकाओं के जितनी उसकी कारिकाएँ ही दुरूहू है और न
अष्टशती के जितनी वृत्ति ही गहन है | किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि उसमें अकछे-
कदेव की प्रखर तकणा और गहन रचना की छाप नहीं है। वास्तव में अकलूंकदेव के वाक्य
अतिगम्भीर अर्थबहुलू सूत्र जैसे होते है और उनका पूवोपरसबन्व जोड़ने के लिये स्याद्वाद-
विद्यापति विद्यानन्द और अनन्तवीय जैसे प्रतिभासंपन्त विद्वानों की आवश्यकता होती है।
लघीयख्रय और उसकी विबृति को बाँचने से षिद्वात् उनको गहनता का अनुमान कर सकेंगे ।
लघीयखय की कारिकाएँ, उनकी विश्वति, परिच्छेद, प्रमाणविषयक्र चर्चा और रचनाशैलों
दिकनाग के प्रमाणसमुच्चय और उसकी स्वोपज्ञविद्वति का स्मरण कराती हैँ । तथा, उसके तीन
प्रकरणों का प्रवेश नाम दिछनाग के न्यायप्रवेश का ऋणी प्रतीत होता है ।
डे १ «जमाणैरथ्थपरीक्षण न््यायः । ततन्न नानुपलब्धे न निर्णतिष्थें न्याय- प्रवर्तते, किन्तहिं १ सशयिते । !
न्यायमाध्य १॥ १३१ ।
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