शतकत्रयम | Shatakatrayam

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Shatakatrayam by कमलेशदत्त त्रिपाठी - Kamalesh Datt Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शोतिदवकम्‌ ५ मंसार में वे ही कोग थे प्ठ होते हैं जो स्वजनों के प्रति उदारता सेवकों पर दया दुर्प्टा से सदा दुप्टता सस्यनों के साथ प्रेम ध्यवहार राजा के सामने मीति, विद्वाना के समझ सीधापन, दुश्मनों के साथ बीरता, गुशजनों के भागे क्षमा याचना तथा स्थिया के विपय में धूर्त ता प्रादि बल्लाप्रा में निपुण हैं ॥ २२ ॥ जादय घियो हरति सिम्नति वाचि [सत्य | मानोश्नत्त. दिशति पापमपाक्रीसि ॥ चेत प्रसादयति दिक्ष, ठनोति घीति। सत्सद्धति फमय कि न क्रांति पुंसाम्‌ ॥र२भा प्रन्‍्ठी संगति भला मनुप्या के लिए बयाजया नहीं करती ? (क्योंकि) है झृढ्धि की झड़ता हर छेसो है, बाशी में सत्य गा संचार बरती है पम्मान की गृद्धि बरती है, पाप गो दूर बरतो है भौर बित्त गा प्रसप्त हगरती है हा दिशाप्रों में यश मा प्रसार गरतो है॥ २३ ॥ जयन्ति ते मुकृतिनो रससिद्धा प्रीक्षरा | नास्ति येपा यशमाय जरामरगुज भयपम्‌ ॥ २४॥ विरुय उडी सलमें करने वात हया रस-परिषाय में सिदहस्स थे प्ठ कवियों बसे है जिनके क्लोलिस्पो शरोर गो बुदपा या मृत्यु फा भय महां हाता ॥ र८॥। मूठ सच्चरित सती प्रियतमा स्थामी प्रसादोमुप | स्तिग्य मिन्रमवश्धक्क परिजनों निष्कलेशलेश मन || हर रचिर' स्थिरश्व विमवो विद्याददात मु । तृप्टे विधच्टपरारिमीएफरसतओी ्फ्फ्त्त्य अ#5िल्‍-७ ॥15 ७1४




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