अभिशप्त | Abhishapt

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Abhishapt by नानक सिंह - Nanak Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अभिषतत रे लो फिर यया कारत कि माँ वा शातल खाया तल हात हुए भी प्राता टिस आ लि झूसता सुझाती जा रती था और जोता के श्रय प्रयग खूब विशास क्र रह थ। पर बचारी माँ वा सम क्या दाप | जब हि उस विश्वास हो बका था वि वीता साथे मे दुमाग्य वा रखा लिखता बर समा मे आाट है / बटाचित यता बारण था ति बरमा वा वात्मम्य प्रलाफों विक्मान में सरायर नहा हो पाया 1 एक ता प्राता वी चिन्ता म॑ दिन रात घुलते रहना कपर से पति मलाय शाखा हर समय टुतकार जाना । और दस होफ से कि यह बया बही सब्या स स्नेह “रत है 1 परिणामत्र बचासा मा सूत्त बर बांटा हाता गे” । ने रस भूख लगता ते टए से बाठ झाता हर समय वह प्राता ये प्रसस को उज्नर मन मे साथा बरती-- झौत श्स झभागिया का ब्याट कर ॥ ायगा ? किसे विपत पडी है जा इस बकाव सा लहका बाग पल बाधता स्वीरार बरया ? तो क्या ध्रमादिती एस मर रू बाय ही पता रहगी ” भोर यदि इसकी प्रारप थे यह विया हैं तो कौन अ्यक भरण पापण का दायित्व सेमाेगा ? बण मरी तरह इस भाग पता जो भी दर ८र वा छापरें खानी पढडेंगी ? तब करमा का ध्यान कतिफ्य ऐसा चिर बुसारिया तया विधयाग्रा दी भार चना जाता जिन्हलि पट लिसकर नौपरी वर ली था विसा प्रवार जावन माप श्र रही थी--विशषत स्कूशा की तोकरियाँस वह मन में साचवा-- यदि मैं भो इसे विद्या स भूपित कर दू तो सम्भव है वि सुसवा भाती लीजन सिक्ट्क रह पाय। तय यह मत मदद नियम कर जती दि चाह बुछ भी हा मुझे श्रीतो को झबाय ही पाता होगा 1 समय ब्यतीत होता थया 1 भन्तत समय ने प्रात बत उसे ठिवान पहुँचा लिया | जब बालिक्षाओ वो पढाई की धोर धररर दाना पता है। पर दुसाग्यवत यहाँ तक पहुंचते न पहुँचत प्राता वा स्वभाव भौर ग्रीता हे लखण झत अवियत्‌ अपने नाम्र स प्रतिकूर दिखाई देने लग 1 कि




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