तलाश मंजिल की | Talash Manzil Ki

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Talash Manzil Ki by विनोद प्रवासी - Vinod Pravasi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र३े मीता कर लिया था। वरसते हुए अंधेरे के कुछ टुकड़े उसने उठाकर अपने सीने मे लगा लिए, जो भ्राज भो उप्के साथ हैं । सोचते-सोचते बहुत रात हो गई-*“पारों सो गई 1 बुस्देतवण्ड में वेटी को विदा बड़े बाजे-गाजे से की जाती है। अम्मा के पास क्या था प्यार के सिवा ! अपनी जोड़ी हुई रकम में से दम रपये पारों को दिए, उवार की रोटियां साथ वाय दीं भौर श्रसीस के साथ मजार के दो हरे चादरे दोनों वच्चों को देकर भश्नुपूरित नेत्रों से 'दिददा किया। जाते समय पारो भौर सगर को बहुत-वहुत समकाया-- जब कोई दुःख हो तो वापस घामोनी झा जाना । भन्‍्त में मन नहीं माना तो प्रम्मा वहरोल तक उन लोगों के साथ गई श्लौर वस में चढाकर ड्राइवर कण्डक्टर को बता दिया कि कबुला पुल के पास वाली सराय पर बच्चों को उतार दे । बस के चलते-चलते प्रम्मा को लगा उसने झ्पनी जाई बेढी को ब्िंदा किया है । भारी मद लेकर वह घामोनी को लौट झाई। र्‌ खानावदोजों की बस्ती । ज्ञावारिसों का डेरा--शहर से दूर नहीं इहर के बीच-...1 भ्राप्पास निम्न, मध्यम एवं उच्च वर्ग के लोगों की असाहद है। भांसी रोड से दुछ हटकर यह सराय है। यहां छोटे-मोटे व्यवसायी रुकते हैं। चोर-उचकक्ते और जेबकट ब्यवसायियों के लिवास में स्‍्राकर ठहरते हैं। भूले, नंगे, कंगाल यहां नौकरी की तलाश में झ्राकर डेरा जमाते हैं। दिन में अ्धिकाश समय घमश्ाला में सोते बीतता है 1 रात को पता नही कहां वेचारे नौकरी की तलाश में निकल जाते हैं । कण्डउ्टर को स्िफ्रारिय पर पारो और समर को एक कोठा मित्र यया।




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