पच्चदशी | Panchdashi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२२ ) पश्चदशी- [ तत्तविवेक- की. इस प्रकार तत॒ त्व॑ पर्दोके आर्थोंकों कहकर वाक्यक अथंकों कहते है [के तमोगु- जप्रपान, मलिनसत्वभ्रघान, विशुद्धसत्तप्रधानरूप तीन प्रकारकी भा परस्पर वरुद्ध २ उस मायाकों छोडफकर अखड (भेदरहित) सताचेदानदरूप ब्रह्म महावाक्यत्त छांक्षल होता है अर्थात्‌ जाना जाता है अर्थात्‌ लक्षणावृत्तिस परतह्म बोध होता है ॥ ४९ । सोध्यमित्यादिवाक्येषु विरोधात्तदिदंतयोः ॥ त्यागेन भागयोरेक आश्रयों लक्ष्यते यथा ॥ ४७ ॥ कदीचित कोई कहे कि इस प्रकार लक्षणावृत्तिसे वाक्यके अर्थका ज्ञान क देखा है इस शंकावी निवृत्तिके लिये कहते हैं के सोय॑ देवदत्तः ( वह यह देवदत है ) इत्यादि वाक्योमं वह देश वह काल और यह देश यह कालरूप विरुद्ध पर्मोके विरों- घसे तत्‌ और इदम बब्दके अर्थोकी एकता नहीं हो सकती; इससे विरुद्ध अंशरूप भागोंकि त्यागसे अर्थात्‌ वह देश काल और यह देश काल इनके त्यागसे एक देव- इतच्तरूप आश्रय ( दहां ० ज॑ंसे लखा जाता हैं अथांत जा शरोरधारों दाना दुश काछामे एक है उसका बोध होता है उससे अभिन्न यह है ऐसी अभेद बुद्धि होती है, भावार्थ यह है के सोयम्‌ इत्यादि वाक्योंमें जेसे तत्‌ ओर अयंके विरोधसे विरुद्ध 2 भागोंके त्यागसे जेसे एक देवेदत्त जाना जाता है ॥ ४७ ॥ मायाविद्रे विहायेवम्ुपाधी परजीवयोः ॥ अखंड सच्चिदानदं पर ब्रह्मेव लक्ष्यते ॥ ४८ ॥ २, आर. हुक $ अब रृष्ठांतकों कहकर दाष्टीतिककों कहते है कि 'सो5यं देवदत्तः इस वाक्यके ही अनुसार परत्रह्म जीवात्माकी उपाधि जो माया और भविधा हैं उन पूवाक्त माया ओर अविय्याकों त्यागकर अखंड सच्चिदानंद ( भेदरहित परबह्म ) महावाक्योसे लखा जाताई अथांत जीवकी आंव्या ओर परजह्मकी मा याके त्यागसे साबिदानंद्रूप बह्मका ज्ञान हो जाता है. भावाथ यह है के वैसे ही परअह्मजीवकी माया अविशद्यारुप उर्पोर घियॉोको त्यागकर महावाक्योंसे एक सच्चिदानंदरूप ब्रह्म ठवा जाता है ॥ ४८ ॥ सविकद्पस्य लक्ष्यत्वे लक्ष्यस्य स्यादवस्तुता ॥ निविकर्पस्य लक्ष्यत्वं न दृ् न च संभवि ॥ ४९ ॥ कदाचित्‌ कोई वादी शंका करे कि महावाक्योंत्रे जो अह्म छा जाता है यह सावेक्टरप ( विकल्पसहित ) है के निर्विकतप ! प्रथम पक्षमं दोष कहते हैं कि, बिपरीतरूप माने नाम जाति आदि सहित जो हो उसे सविकिरप कहते हैं उसकों महावाक्योंका लक्ष्य ( भानने योग्य ) मानोंग ढो महावाक्योंके रक्ष्यकों अवस्त॒ता




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