समर्थ रामदास स्वामी | Samarth Ramdas Swami

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Samarth Ramdas Swami by श्री रामदास स्वामी - Shri Ramdas Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीर्पयाचा श्र देशपयर्टन । की सूर्ति स्थापित की और श्रभास क्षेत्र मे रामदासी सम्प्रदाय का मठ स्थापन करके अनेक लोगों को भक्तिमार्ग में घ्रइत किया । प्रभास क्षेत्र से चलकर पंजाब के श्राम-नगरो मे घूमते हुए श्रीरामदासस्वामी श्रीनगर पहुँचे । वहाँ नानकपथी साधुओं से भेट हुई। वे साधु अध्यात्मज्ञान मे परम निपुण थे। जब कोई साधु उनके यहाँ आता तव वे वेदान्त-विषयक प्रश्न उससे अवश्य पूज्ते थे । परन्दु जो साधु उनकी शकाओं का समाधान न कर पाता था उसका बे उपहास कभी न करते थे । समर्थ का आगमन सुनकर ये उनके दर्दन के ल्ए गये ओर भत्तिपूर्वक कुछ अध्यात्म-प्रश्न उनसे पूछे । जिन शफाओ का उत्तर बढ़े वंडे अनुभवी साधु न दे सकते थे उनको श्रीसमर्थ ने बात की बात में हल कर दिया । नानकपथी साधुओ को उनका अध्यात्मनिरुपण सुनकर बड़ा आनन्द हुआ । उन्हेंने रामदासस्तामी को यडे आदर के साथ एक मास तक अपने यहां रस लिया । जब समर्थ वहाँ से बिदा होने लगे तव उन सिमख-गुरुओ ने समर्थ से मेत्रदान के लिए प्रार्थना की । समर्थ ने कह्दा आप लोंगा के गुरु वहीं नानकजी हैं जिन्होंने सुसत्मानों से भी राम राम कह लाया है बदद उपदेदा क्या तुम्हारे लिए कम है नानकपथ की सार्थकता करो इतना कहकर समर्थ हिमालय की ओर चलें । हिमालय से उन्होंने बद्रीनाथ केदारनाथ और उत्तरमानस की यात्रा की । हिमालय के एक अति उच्च शिखर पर श्रेतमारती का स्थान है । वहां शीत या हिम की अधिकता के कारण कोई पुरुप नहीं जा सकता ॥ स्वामी दकराचायेजी वहाँ तक गये थे । श्रीसमर्थ भी वहाँ तक गये और हुमानजी के दर्बन करके कुछ दिन में छीट आये । इस प्रकार उत्तर और पश्चिम की यात्रा पूर्ण करके अनेक मनोरम तथा चिक्ट स्थानों में घूमते हुए वे एकढम पूर्व की ओर जग नाथजी को चढे । जगनाथपुरी में पहुँचने पर पश्मनाभ नामक एक ब्राह्मण समर्थ के दारण में आया । उसे मंत्र देकर समर्थ ने रामदासी सम्प्रदाय का उपदेश दिया और पुरी में श्रीराम की सूर्चि स्थापित करके मठ की व्यवस्था उसी ब्राह्मण को सौंप दी । जगनाथजी के दान करके पूर्वी समुद्र के किनारे प्रवास करते हुए वे दक्षिण में रामेश्वर को गये । वहाँ देवद्दन और पुजन-अर्चन करे समर्थजी लका तक गये । लका से पहुँचकर उन्हें रामायणकालीन विभी- पण और इनुमान_ आदि रामसेवकों का स्मरण आया । व्दों कई दिन रह कर उन्होंने विभी- घण भादि की प्रार्थना विषयक कुछ कविता रतवी । छका से लौट कर ये आदिरंग भध्यरंग संतरंग श्रीजनादन और दर्शसेन आदि क्षेत्रों में जाकर देवदशन करते हुए गोकर्ण महावलें- श्वर में पहुँचे । वहाँ कुछ दिन रहकर शेपाद्रि पर्वत पर गये और फिर श्रीवेंस्‍्टेश श्रीरौल्य सछिकाजुन बाल नरसिंह पाठक नरसिंह दचोटी वीरभद्र और पुरोण-प्रसिद्ध पंचलिगों के दर्शन करके किष्क्रन्धा नगरी में आये ॥ वहाँ पम्पासर कऋष्यमूक पवेत आदि रामायण प्रसिद्ध स्थान देखकर श्रीकार्तिकस्वामी के दर्शन को देवांगेरी पर गये । वहाँ से दक्षिणकाशी ( कर- चीर-क्षेत्र ) को लौट आये । इसके वाद कॉकण के रास्ते से पश्चिमी समुद्र के किनारे होने हुए




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