रत्नपरीक्षादि सप्त ग्रन्थसंग्रह | Ratnparikshaadi Sapt Granthsangrah

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Ratnparikshaadi Sapt Granthsangrah by अगरचंद नाहटा - Agarchand Nahta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रलपरीक्षा का परिचय श्शे (४ ) जाति-रनशाज्ों में इस शब्द 'का तीन अर्थों में प्रयोग हुआ है। यथा असली रत्न, रन की किस्म और जाति। अतिम विश्वास के अनुसार रत्नों में मी जातिमेद होता था | यह विश्वास शायद पहिले पहल हीरे तक ,ही सीमित था ।,इसके अनुसार ब्राह्मण को सफेद हीरा, क्षत्रिय को छाछ, वैश्य को पीछा और शझद्द को 'कालछा हीरा पहनने का विधान था । बाद में यह विश्वास ओर रत्नों के सम्बन्ध में भी प्रचलित हो गया । । (५) शुण, दोष-रत्नों के सम्बन्ध में इन शब्दों का प्रयोग उनकी छुद्धता और चमत्कार लेकर हुआ है । पहिले अर्थ में वे रत्न के गुण और दोष परक हैं। दूसरे अर्थ में वे रत्न के बुरे और भले प्रभाव के द्योतक है। रनों के ग्रुण निम्नलिखित है-महत्ता (भारीपन ) गुरुत्व, गौरव ( घनत्व ) काठिन्य, खिग्धता, राग-रंग, आब ( अचिस्‌ , युति काति, प्रभाव ) और खच्छता । (६ ) फल-सभी रत्नों के फल की विवेचना की गई है। अच्छे रत्न खास्थ्य, दीधजीवन, धन और गौरव देने वाले, सप, जंगली जानवर, पानी, आग, बिजली, चोट, बिमारी इत्यादि से मुक्ति देनेवाले तथा मैत्री कायम रखने वाले माने गए हैं। उसी तरह खराब रत्न दुख देनेवाले माने गए हैं । यह ध्यान देने योग्य बात है, कि रत्नों के बीमारी अच्छा करने के गुणों का रत्न शाल्यों में उछलेख नहीं है | रत्नों के फलों की जांच पड़ताल से यह मी पता चलता है कि उनके लिखने में दिमागी कसरत को अधिक प्रश्नय दिया गया है। पर इसमें संदेह नहीं कि शास्ततकारों ने रक्ष-फल के सम्बन्ध में लोकविश्वासों की मी चचौ कर दी है। हीरे का गर्भस्नावक फल ओऔर पन्ने का सरपेविष को रहना इसी कोटि के विश्वास हैं । ( ७) रलों के मूल्य-उनके तौल और प्रमाण पर आश्रित होते थे। प्राचीन ग्रंथों में रत्नों का मूल्य रूपको और काषोपणो में निधारित किया गया है। यह पता नहीं चलता कि रक्नों का मूह्य सोना अथवा चादी के सिक्को में निधोरित होता था पर कार्षापणके उछेख से इनका दाम चांदीके सिक्कों ही भें माछम पडता है । अगस्तिमत के एक क्षेपक ( १२) से पता चलता है कि गोमेद और मूंगे का दाम चांदी के सिक्को में होता था, तथा वैड्डय और मानिक का सोने के सिक्कों में | ठक्करफेरु ( १३७) ने बडे हीरे, मोती, मानिक और पन्ने का मूल्य खणैठंकोमें ' बतछाया है। आधे मासे से चार मासे तक के छाछ, लहसुनिया, इन्द्रनीछ और फिरोजा के दाम भी खणैमुद्राओं में होते थे ( १९१-१२३ ) एक ठाक में १० से १०० तक चढने वाले 1यद्ा यह बात उछेखनीय है कि दिव्य शरीर का रत्नों में परिणत द्योजाने का विश्वास वैदिक है (जे० आर० एस० १८९४, पृ० ५०८-५६० ) इरानियों का भी कुछ ऐसा ही विश्वास था ( जे० आर० एस० १८९५७, प० २०२-२०३ )




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