महबंधों | Mahabandho

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आदि स्थानोंमें पहुंचाई गईं। इससे जयधवल् और धवल शाखोंके दश्शेन तथा स्वाध्यायका सौभाग्य अनेक व्यक्तियोंको प्राप्त होने छगा । मूडबिद्री वालोंको अन्धकारमें रखकर जिप्त ढंगसे पूर्वोक्त दो सिद्धान्त शालत्र मूडबिद्री से बाहर गए और उनका श्रचार किया गया, उससे मडबिद्रीके पंचोंके हृदयको- बड़ा आघात पहुंचा। मूडबिद्रीकी विभूतिके अन्यत्र चले ज्ानेसे मूडबिद्रीके ग्रति आकर्षण कम हो जायगा, यह बात भी उनके चित्तमें अवश्य रही होगी, इस कारण अब उनने महाघ््वयरू-महाबन्धकी प्रतिलिपिके विषयमें पूर्ण सतकतासे कार्य छिया। दूधका जला छांछको भी फूक कर पीता है, इस कहावतके अलुसार उनने महाबन्धको शासत्र भंडारमें इतना अधिक सुरक्षित कर दिया, कि मेंट देनेवाले व्यक्ति भी महाबंप्वके स्थानमें अनेक बार अन्य शाझ्बका दर्शन कर अपने मनको काल्पनिक संतोष प्रदान करते थे कि हमने भी महाधवरछ जी आदिकी बंदना कर ली। अब महाबंधका यथार्थ दरशंन जब कठिन हो गया तब अतिलिपिकी उपलब्धिकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। सेठ हीराचंदजी के सत्प्रयत्नसे महाबंधकी देवनागरी प्रतिलिपिका कार्य पं० लोकनाथजी शास्त्री मूडबिद्रीके अ्न्थागारके लिए करते जाते थे। यह कार्य सन्‌ १९१८ से १९२२ पयन्त चढा। इसी बीचमें पं० नेमिराजजीने इसकी कनड़ी ग्रतिक्ोेिपि भी बना छी। तीनों सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतिलिपि करानेमें ठगभग बीस हजार रुपया खर्च हुए ओर छब्बीस वर्णका लम्बा समय छगा। तीनों ग्रन्थोंकी देवनांगरी तथा कनड़ी प्रतिलिपिके हो जानेसे अब सुरक्षण सम्बन्धी चिन्ता दूर हो गई, केवढ एक ही जटिछ समस्‍या श्रुतभक्त समाजके समझने सुलझाने को थी, कि महाबंधको बंधन मुक्त करके किस प्रकार उस ज्ञाननिधिके द्वारा जगत॒का कल्याण किया जाय ? इस क्षेत्रमें महान प्रयत्नशीलक सेठ माणिकचंदजी बंबई तथा सेठ हीराचंदजी सोछापुर सफल मनोरथ होनेके पूरे ही स्वर्गीय निधि बन गए । दिगम्बर जन महासभाने इस विषयमें एक प्रस्ताव पास करके प्रयत्न किया, किंतु वह अरण्यरोदन रहा। महासभाका एक वार्षिक उत्सव सन्‌ १९३६ में इन्दोरमें रावराजा दानवीर श्रीमन्‍्त सर सेठ हुकम्चंदजीकी जुबडीके अवसर पर हुआ। वहां महाबंधके विषयमें हमने “प्रस्ताव पेश करनेका प्रयत्न किया, तो महासभाके अनेक अनुभवी व्यक्तियोंने इस बातका विरोध किया, कि यह अनावश्यक है, वह अन्थ तो मूडबिद्रीकी समाज देनेको बिल्कुल तेयार नहीं है। विशेष श्रम करनेपर सोभाग्यसे पुनः प्रस्ताव पास हुआ ओर उसमें ग्राण-प्रतिष्ठानिमित्त एक उपसमितिका निमोण हुआ। उसके संयोजक जिनवाणीभमषण धरममवीर स्व० सेठ रावजी सखाराम जी दोशी बनाए गए। लेखक भी उसका अन्यतम सदस्य था। खेठ राबजी भाईने दो बार मूडबिद्रीका रूम्बा प्रवास करके एवं हजारों रुपया भेंट करनेका अभिवचन देकर भी सफलता निमित्त प्रयास किया, किंतु दुभोग्यवश मनोरथ पर्ण न हो पाया। कुछ ऐसी बातें उत्पन्न हो गई', जिनने मधुर संबंधोंमें भी शथ्िल्य उत्पन्न कर दिया। महाबंध उपसमितिके समक्ष यहाँ तक विचार आने छगा, कि जिनवाणी माताकी रक्षा निमित्त व्यक्तिगत अनुनय-विनयका मार्ग छोड़कर अब न्यायाढयका आश्रय लेना श्राहिए। किन्‍्हीं व्यक्तियोंके विचित्र ग्रन्थ-मोहकी पूर्ति ...निमित्त विश्वकी अनुपमनिधिको अब अधिक समय तक बंधनमें नहीं रखा जा सकता।




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